सज़ल
शीत में वातावरण यूँ गल रहा है।
लुकाछिपी करके सूरज छल रहा है।
हो गयी है रात लम्बी इस तरह कि ।
शाम में ढ़लने को दिन मचल रहा है।
प्रकृति भी कुहरे की चादर ओढ़कर ।
गलन में उसे कँपकँपाना खल रहा है।
श्वेत पालों ने बिगाड़ा रूप पल्लव ।
रंग फूलों का भी जैसे बदल रहा है।
अव्यवस्थित सबका जीवन हो गया है।
बर्फ में मन जैसे सबका जल रहा है।
“महज़ ” मुखड़ा दीखता है मनुज का I
कपड़े इतने पहनकर वो चल रहा है।