सजदे में झुका हो ही न वो सर नहीं देखा
सजदे में झुका हो ही न वो सर नहीं देखा
बदले न इबादत से मुक़द्दर नहीं देखा
बेकार किया वक़्त तलाशा है जो बाहर
जिसने भी ख़ुदा झांक के अन्दर नहीं देखा
रहता है खड़ा पैर पे सोता भी नहीं जो
मैंने तो कभी ऐसा क़लन्दर नहीं देखा
नज़रों के बुरे तीर ज़ुबाँ तेज के नश्तर
धोके से बड़ा कोई भी ख़ंजर नहीं देखा
तीनों का है कहना कि बुराई से बचो बस
गाँधी का कोई तुमने तो बन्दर नहीं देखा
सहरा में गये हैं तो मगर एक दफ़अ भी
सहरा में सराबों का वो मंज़र नहीं देखा
मेंढ़क के लिये उसका कुवां ही तो है सागर
कूवें में रहा उसने समुन्दर नहीं देखा
दुनिया की नज़र में तो बड़ा पाक है दिलबर
करता जो सितम हंस के सितमगर नहीं देखा
माथे से बहा ख़ून तो जाना है लगा कुछ
“आनन्द” किसी हाथ में पत्थर नहीं देखा
– डॉ आनन्द किशोर