सच-झूठ
सच कड़वा होता है,जल्दी से हज़्म नहीं होता।
मौन रहना भी मगर,जख़्म पर मरहम नहीं होता।।
झूठ की उम्र छोटी,कभी भूलकर भी मत बोलो।
जान जिस भी झूठ से,सच की बचे सौ बार बोलो।।
गलती का पुतला है,न चाहते हुए भी करेगा।
सज़ा पाकर ही मगर,एक इंसान है सुधरेगा।।
अन्याय पर चक्षु बंद,अन्तर्मन का ही मरना है।
बिल्ली देख क़बूतर,का यह आँख बंद करना है।।
मानव-मानव लड़ता,मानवता की हार यही होती।
दुख में साथी बनना,प्रेम की पुकार यही होती।।
दो मीठे बोल दवा,किसी रोग की बन जाते हैं।
सुनके रोते हर मन,फूलों के सम खिल जाते हैं।।
ऊँच-नीच के काँटें,तनिक निकालकर देखिएगा।
समता के फूल ज़रा,पथ में बिछाकर देखिएगा।।
जीवन रंगीन बने,प्यार की बहार लाइएगा।
जग-उद्यान बनेगा,ख़ुशबू हर कहीं पाइएगा।।
अपना सपना पूरा,औरों की हर आशा टूटे।
यह तो पशुपन होता,मानवता को है जो लूटे।।
अख़बारों की छाती,ख़ून हवस से लिपटी देखी।
कैसे कह दूँ महान,देश की रुहें कपटी देखी।।
देश का पैसा लेकर,विदेशों में भाग जाते हैं।
दो जून भोजन नहीं,कुछ रात में जाग जाते हैं।।
मुर्दा-सी आबादी,क्या ख़ाक मिली है आज़ादी।
रुहों का मिलना नहीं,सोच-सोच की है बर्बादी।।
सपनें नंगे फिरते,मौत विचारों की है होती।
आशा-सागर खारा,यहाँ विश्वास की माँ रोती।।
उपदेश सुगंध लिए,अनुसरण दुर्गंध रहे फैला।
कैसे मिले उजाला,अँधेरे खुदी की रहे चला।।
सोचो आज विचारो,स्वार्थ को खुदी प्रीतम हारो।
एक-दूजे की चाह,सदा रहे बनी यह पुकारो।।
स्याही बिना क़लम का,व्यर्थ ही हो सदा होना है।
मिलजुलकर रहने में,विष भी अमृत का धोना है।।
राधेयश्याम बंगालिया “प्रीतम”
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