सच के आईने में
नाटक: “सच के आईने”
पात्र:
1. प्रिंसिपल सरोज सिंह – स्कूल का अनुशासनप्रिय परंतु अनुभवहीन एवं कम बुद्धि वाला प्रिंसिपल
2. रमेश – एक तेज-तर्रार गणित शिक्षक, दूसरों के बारे में जल्दी ही राय बना लेता है।
3. सुनीता – स्कूल की विज्ञान शिक्षिका, जो रमेश और महेश के काम करने के तरीकों से नाखुश रहती है।
4. महेश – अर्थशास्त्र का अध्यापक , जो अपनी बातों में दूसरों को प्रभावित करना जानता है, पर अपने साथियों के बारे में कई नकारात्मक विचार रखता है।
दृश्य 1:
(स्कूल का स्टाफ रूम। रमेश, सुनीता और कविता बैठे हुए हैं। हर कोई अपने काम में व्यस्त है, पर माहौल में अजीब सी खामोशी है।)
रमेश (महेश की ओर देखते हुए, मन में):
“महेश तो मानो स्कूल में बस भाषण देने के लिए ही आता है। हर वक़्त बस बोलता ही रहता है, काम से ज्यादा बातों में लगा रहता है।”
सुनीता (रमेश की ओर देखते हुए, मन में):
“रमेश को तो बस खुद को सबसे बेहतर दिखाने की पड़ी रहती है। कभी टीमवर्क का मतलब ही नहीं समझेगा ये आदमी।”
महेश (सुनीता की ओर देखते हुए, मन में):
“सुनीता को तो हर किसी के काम में नुक्स निकालने की आदत है। खुद की साइंस क्लासेज़ भी ढंग से नहीं लेती और हमेशा दूसरों पर उंगली उठाती रहती है।”
(इतने में प्रिंसिपल सरोज सिंह कमरे में प्रवेश करते हैं। तीनों दिखावे के लिए मुस्कुरा कर उनका स्वागत करते हैं।)
प्रिंसिपल (मुस्कुराते हुए):
“अरे वाह, आप तीनों तो इतने अच्छे दोस्त हो, हमेशा एक-दूसरे के साथ रहते हो। ये देखकर अच्छा लगता है।”
(तीनों एक-दूसरे की ओर देख कर थोड़ी बनावटी हंसी हंसते हैं।)
प्रिंसिपल:
“लेकिन मुझे लगता है कि कुछ अनकहा सा है यहाँ। ऐसा क्यों लग रहा है कि आप लोग खुलकर बात नहीं कर पा रहे हो?”
(तीनों असहज हो जाते हैं।)
रमेश (संकोच से):
“नहीं सर , ऐसा कुछ नहीं है। हम तो हमेशा एक साथ ही रहते हैं।”
प्रिंसिपल:
“देखो, मुझे स्कूल के माहौल को बेहतर बनाने के लिए एक पहल करनी है। मैं चाहता हूँ कि आप तीनों एक प्रोजेक्ट पर साथ काम करो। ये प्रोजेक्ट सिर्फ काम नहीं होगा, बल्कि आपके बीच विश्वास और सहयोग को भी बढ़ाने का जरिया बनेगा।”
सुनीता (थोड़ी अनिच्छा के साथ):
“कौन सा प्रोजेक्ट, सर?”
प्रिंसिपल:
“आप तीनों मिलकर एक वर्कशॉप आयोजित करेंगे, जिसमें स्कूल के बच्चों को आपसी प्रेम और विश्वास का महत्व सिखाओगे। पर ये तभी सफल होगा, जब आप खुद इसके उदाहरण बनोगे।”
महेश (संदेह में):
“लेकिन, सर… क्या ये हमारे बस की बात है?”
प्रिंसिपल (गंभीर होकर):
“मुझे पूरा विश्वास है कि आप कर सकते हो। पर इसके लिए सबसे पहले अपने मन में जो कड़वाहट है, उसे दूर करना होगा। सामने दोस्त बनकर रहना आसान है, लेकिन सच्ची दोस्ती तब होती है जब आप एक-दूसरे के पीठ पीछे भी उनकी इज्जत करते हो।”
(तीनों एक-दूसरे की ओर देखते हैं, सोच में पड़ जाते हैं।)
प्रिंसिपल:
“आपके अंदर की कड़वाहट सिर्फ आपका नुकसान करती है। मैं चाहता हूँ कि आप लोग एक-दूसरे से खुलकर बात करें, अपने मन की बात रखें। चलिए, आज से आप तीनों हर हफ्ते एक ‘सच्चाई की बैठक’ करेंगे, जहाँ आप बिना झिझक एक-दूसरे से अपने मन की बात करेंगे।”
रमेश (थोड़ा शर्मिंदा होकर):
“शायद आप सही कह रहे हो हैं, सर। कई बार हमें यह अहसास भी नहीं होता कि हमारे मन में कितनी नकारात्मकता भर चुकी है।”
सुनीता (सिर झुकाते हुए):
“मुझे भी लगता है कि हमें खुलकर बात करनी चाहिए, तभी हम एक बेहतर टीम बन सकते हैं।”
महेश (सहमति में सिर हिलाते हुए):
“मैं भी तैयार हूँ, सर । शायद ये एक अच्छा मौका है हमारे रिश्ते को सही दिशा में ले जाने का।”
प्रिंसिपल (मुस्कुराते हुए):
“मुझे खुशी है कि आप लोग समझ गए। याद रखो, जो असली दोस्त होते हैं, वो सिर्फ सामने ही नहीं, बल्कि हर वक्त आपके साथ खड़े रहते हैं। अब जाओ, और इस प्रोजेक्ट को सफल बनाओ!”
(तीनों एक नई ऊर्जा के साथ बाहर निकलते हैं, और उनके चेहरों पर एक सच्ची दोस्ती की शुरुआत की झलक होती है।)
दृश्य समाप्त
नाटक: “सच के आईने”
दृश्य 2
(स्कूल का एक कॉन्फ्रेंस रूम। रमेश, सुनीता और महेश एक टेबल पर बैठे हुए हैं। उनके सामने कुछ नोट्स और योजनाएं रखी हुई हैं। तीनों एक-दूसरे की ओर देख रहे हैं, पर माहौल में तनाव और असहमति का आभास है।)
रमेश (हिचकिचाते हुए):
“तो… वर्कशॉप का प्लान कैसा होना चाहिए? हमें बच्चों को क्या-क्या सिखाना चाहिए?”
महेश (संकोच में):
“मुझे लगता है कि पहले हमें ये तय करना होगा कि हम खुद कैसे साथ काम करेंगे। अगर हम खुद ही नहीं समझ पाए, तो बच्चों को क्या सिखाएंगे?”
सुनीता (थोड़ा झुंझलाकर):
“सही कह रहे हो। लेकिन सबसे पहले ये तो समझो कि किसे क्या करना है। मुझे तो लगता है कि रमेश को गणित से जुड़ी कोई एक्टिविटी तैयार करनी चाहिए, ताकि वो बच्चों को आसानी से सिखा सकें।”
रमेश (थोड़ा तुनककर):
“अरे, मैं हर बार गणित ही क्यों करूं? तुम हमेशा मुझे सबसे जटिल काम थमा देती हो।”
महेश (बात काटते हुए):
“रमेश, ये सिर्फ गणित की बात नहीं है। हम टीम के रूप में काम कर रहे हैं, और तुम्हें जो आता है, वही करना चाहिए। सुनीता ने सही कहा है।”
रमेश (थोड़ा क्रोधित):
“हाँ, टीम वर्क की बात करो, लेकिन असल में तुम दोनों ने पहले से ही सब कुछ तय कर लिया है। मुझे लगता है, मैं बस यहाँ ‘हां’ कहने के लिए हूँ।”
(वातावरण गरम होने लगता है। तभी प्रिंसिपल सरोज सिंह कमरे में प्रवेश करते हैं। उनके चेहरे पर गुस्से का भाव है।)
प्रिंसिपल (तेज आवाज़ में, गुस्से से):
“क्या तमाशा लगा रखा है तुम लोगों ने? हर बार छोटी-छोटी बातों पर लड़ते रहते हो! क्या यही है टीम वर्क? मुझे लगता है कि तुम लोग समझ ही नहीं पाए कि मैं क्या चाहता हूँ।”
(तीनों असहज होकर चुप हो जाते हैं, प्रिंसिपल का गुस्सा देखकर उन्हें अचंभा होता है।)
प्रिंसिपल (थोड़ा कठोर स्वर में):
“मैंने आपसे क्या कहा था? मैंने कहा था कि आप लोगों को टीम के रूप में काम करना है। लेकिन आप तीनों अब तक अपनी-अपनी लड़ाई में ही फंसे हुए हो। ये स्कूल है, कोई युद्ध का मैदान नहीं!”
(रमेश, सुनीता, और महेश चुपचाप एक-दूसरे की तरफ देखते हैं।)
प्रिंसिपल (थोड़ा नरमी दिखाते हुए, पर गंभीर):
“मैंने तुम लोगों को इसलिए चुना था, क्योंकि मैं जानता हूँ कि तुममें क्षमता है। लेकिन इस तरह से काम नहीं चलेगा। सच्ची टीम तब बनती है जब आप सामने और पीठ पीछे दोनों ही जगह एक-दूसरे का सम्मान करते हो।”
रमेश (संकोच में):
“सॉरी, सर । शायद मैंने जल्दी से राय बना ली और नाराज हो गया।”
सुनीता (सिर झुकाकर):
“मुझे भी समझ में आ रहा है कि बिना बातचीत किए, मैंने रमेश के काम पर सवाल उठाया।”
महेश (आहिस्ता से):
“मैंने भी बिना जाने, सबको गलत समझा। शायद हमें पहले एक-दूसरे को सुनना चाहिए था।”
प्रिंसिपल (थोड़ा सख्त, लेकिन आश्वस्त होकर):
“ये सही दिशा है। लेकिन ध्यान रखना, मैं सिर्फ बातों में सुधार नहीं देखना चाहता, मुझे परिणाम चाहिए। अब मैं दोबारा कोई बहाना सुनना नहीं चाहता। आप लोग साथ बैठकर इस वर्कशॉप को सफल बनाओ, वरना मुझे कड़े कदम उठाने पड़ेंगे।”
(तीनों गंभीरता से सिर हिलाते हैं, उनकी आँखों में अब कोई झिझक नहीं है।)
रमेश (मुस्कुराते हुए):
“चलो, मैं गणित की एक्टिविटी तैयार करता हूँ। लेकिन हाँ, तुम दोनों को भी अपनी हिस्सेदारी निभानी होगी।”
सुनीता (हंसी में शामिल होते हुए):
“बिलकुल, अब मैं साइंस के लिए एक शानदार एक्टिविटी तैयार करूंगी। और इस बार कोई बहस नहीं होगी।”
महेश (हंसते हुए):
“और मैं अपने अर्थशास्त्र के हिस्से में सभी को जोड़ने का काम करूगा । हम इस बार मिलकर दिखाएंगे।”
प्रिंसिपल (थोड़ी संतुष्टि के साथ):
“याद रखना, असली टीम वही होती है जो एक-दूसरे की कमजोरी नहीं, बल्कि ताकत को समझती है। अब काम पर लगो!”
(तीनों अध्यापक नई ऊर्जा के साथ वर्कशॉप की योजना बनाना शुरू करते हैं। प्रिंसिपल उन्हें जाते हुए देखते हैं, उनकी आँखों में एक सख्त पर प्यार भरी उम्मीद झलकती है।)
दृश्य समाप्त
नाटक: “सच के आईने”
दृश्य 3 :
(स्कूल के ऑडिटोरियम में वर्कशॉप का दिन है। स्टेज सजा हुआ है और बच्चे उत्साहित होकर आगे की पंक्तियों में बैठे हैं। रमेश, सुनीता और महेश वर्कशॉप की तैयारी में व्यस्त हैं। प्रिंसिपल सरोज सिंह भी वहां मौजूद हैं, वह दूर से तीनों की गतिविधियों पर नज़र रख रहे हैं।)
रमेश (थोड़ा तनाव में, सुनीता से):
“तुमने प्रेजेंटेशन तैयार कर ली है, ना? मैं गणित की एक्टिविटी के लिए सबकुछ सेट कर रहा हूँ।”
सुनीता (सकुचाते हुए):
“हाँ, प्रेजेंटेशन तैयार है, लेकिन मुझे लगता है कि मैं अभी भी थोड़ा नर्वस हूँ।”
महेश (हंसते हुए):
“चिंता मत करो, सुनीता। हम सब यहाँ हैं। अगर कहीं अटक जाओगी, तो मैं संभाल लूंगा।”
(रमेश और सुनीता एक-दूसरे की ओर देखते हैं और मुस्कुराते हैं। उनकी आपसी समझ में अब सुधार हो चुका है।)
रमेश:
“सही कह रहे हो, महेश। हमने बहुत मेहनत की है, अब हमें बस बच्चों को इम्प्रेस करना है। और मुझे पूरा यकीन है कि ये वर्कशॉप सफल होगी।”
(प्रिंसिपल सरोज सिंह, जो पीछे खड़े थे, यह बातचीत सुनकर धीरे-धीरे उनके पास आते हैं।)
प्रिंसिपल (सख्त लेकिन थोड़ा नर्म स्वर में):
“तो, सब तैयार है? देखो, अगर ये वर्कशॉप सफल नहीं हुई, तो समझो, मेरी उम्मीदों पर पानी फिर जाएगा। मैं किसी भी बहाने के लिए तैयार नहीं हूँ।”
(तीनों थोड़े घबराते हुए प्रिंसिपल की ओर देखते हैं।)
महेश (आत्मविश्वास के साथ):
“आप चिंता मत कीजिए, सर। हम सबने पूरी कोशिश की है और हम बच्चों के सामने अपनी बेस्ट देंगे।”
सुनीता (थोड़ी दृढ़ता के साथ):
“हां, सर। इस बार हम एक टीम की तरह काम कर रहे हैं और हम वर्कशॉप को सफल बनाने के लिए पूरी तरह से तैयार हैं।”
प्रिंसिपल (थोड़ा कठोर लेकिन संतुष्ट):
“अच्छा है। लेकिन ध्यान रखना, मैं सिर्फ बातें सुनने नहीं आया हूँ। मुझे नतीजे चाहिए। अब जाओ, और दिखाओ कि तुम क्या कर सकते हो।”
(तीनों अध्यापक आत्मविश्वास के साथ अपनी-अपनी जगह पर जाते हैं। प्रिंसिपल दूर से उन्हें देख रहे हैं, उनके चेहरे पर हल्की संतुष्टि और उम्मीद का भाव है।)
(वर्कशॉप शुरू होती है। स्टेज पर बच्चे और टीचर्स एक-एक करके अपने हिस्से का काम कर रहे हैं। रमेश अपनी गणित एक्टिविटी करवाता है, जिसमें बच्चे बड़ी दिलचस्पी से भाग लेते हैं। सुनीता अपनी साइंस एक्टिविटी के जरिए बच्चों को विज्ञान के नए-नए तरीके सिखाती हैं। और महेश बच्चों को आपसी प्रेम और सहयोग पर एक सुंदर कविता सुनाता है।)
(बच्चे तालियां बजाते हैं, और तीनों अध्यापक संतोष महसूस करते हैं।)
रमेश (मुस्कुराते हुए, सुनीता और महेश से):
“देखो, हमने कर दिखाया! बच्चों ने खूब मजा लिया और हम भी बिना किसी परेशानी के साथ काम कर पाए।”
सुनीता (हंसते हुए):
“हां, और ये सिर्फ इसलिए हुआ क्योंकि हमने एक-दूसरे की बात सुनी और साथ काम किया।”
महेश (आत्मविश्वास से):
“सच में, हमें ये पहले ही समझ जाना चाहिए था। जब हम एक टीम बनकर काम करते हैं, तो कुछ भी मुश्किल नहीं होता।”
(इतने में प्रिंसिपल सरोज सिंह स्टेज पर आते हैं। उनके चेहरे पर हल्की मुस्कान है, लेकिन वह अपनी सख्ती बनाए रखते हैं।)
प्रिंसिपल (कड़क आवाज़ में, पर थोड़ी नरमी के साथ):
“अच्छा किया। मुझे खुशी है कि तुम तीनों ने मिलकर इस वर्कशॉप को सफल बनाया। अब बच्चों के चेहरे देखो, सब कितने खुश हैं। यही होता है टीम वर्क का असली मतलब।”
(तीनों अध्यापक संतोष भरी नजरों से प्रिंसिपल की ओर देखते हैं।)
प्रिंसिपल (मुस्कुराते हुए, लेकिन सख्ती बनाए रखते हुए):
“लेकिन याद रखना, ये सिर्फ शुरुआत है। अब मैं चाहूंगा कि ये टीम वर्क हर दिन दिखे, सिर्फ आज नहीं। स्कूल को बेहतर बनाने के लिए हर दिन एक जैसी मेहनत चाहिए। वरना मैं अभी भी वही सख्त कदम उठाने से पीछे नहीं हटूंगा।”
(तीनों अध्यापक सिर हिलाते हैं, इस बार पूरी तरह समझ चुके हैं कि सच्ची टीम वर्क का मतलब क्या है।)
रमेश:
“सर, अब हम हर दिन इसी तरह से काम करेंगे।”
महेश:
“अब हमने समझ लिया है कि कैसे साथ काम करना है।”
सुनीता:
“सच में, सर। हम इस स्कूल को एक टीम के रूप में आगे बढ़ाएंगे।”
प्रिंसिपल (संतुष्टि के साथ):
“ठीक है, अब जाओ और बाकी काम भी इसी ईमानदारी से करो।”
(तीनों अध्यापक आत्मविश्वास के साथ स्टेज से उतरते हैं, और प्रिंसिपल उनकी ओर संतुष्टि भरी नजरों से देख रहे हैं। बच्चों की तालियों की गूंज में वर्कशॉप का समापन होता है।)
दृश्य समाप्त
दृश्य 4:
(स्कूल के स्टाफ रूम का माहौल है। वर्कशॉप खत्म होने के कुछ दिनों बाद का समय है। रमेश, सुनीता और महेश एक टेबल पर बैठे हैं, कुछ पेपरवर्क कर रहे हैं। माहौल अब पहले से अधिक सौहार्दपूर्ण है। तीनों के चेहरे पर संतोष और आत्मविश्वास का भाव है। प्रिंसिपल सरोज सिंह थोड़ी देर बाद स्टाफ रूम में प्रवेश करते हैं।)
रमेश (मुस्कुराते हुए):
“आप देखिए, सर! वर्कशॉप के बाद बच्चों ने कितनी अच्छी प्रतिक्रिया दी है। अब हर कोई हमारे प्रोजेक्ट्स में भाग लेना चाहता है।”
सुनीता:
“सच में, सर। ऐसा लगता है कि बच्चों में भी एक अलग जोश आ गया है। वो अब टीम वर्क के महत्व को समझने लगे हैं।”
महेश:
“और सबसे खास बात ये है कि हमने भी एक-दूसरे के साथ बेहतर तरीके से काम करना सीख लिया है। अब तो हर काम में मजा आ रहा है।”
प्रिंसिपल (मुस्कुराते हुए लेकिन थोड़ा सख्त अंदाज में):
“यह सुनकर अच्छा लगा। मैंने आप तीनों से यही उम्मीद की थी। अब बस यही देखना है कि यह टीम वर्क कितने समय तक चलता है। एक वर्कशॉप से स्कूल नहीं बदलता, लेकिन आपकी एकजुटता इसे जरूर बदल सकती है।”
(तीनों अध्यापक सिर हिलाते हैं और मुस्कुराते हैं, उनकी बातों में अब सच्ची ईमानदारी झलकती है।)
रमेश:
“सर, अब हम यह सुनिश्चित करेंगे कि कोई भी काम बिना आपसी सहमति के न हो। हमने यह समझ लिया है कि एक-दूसरे को सुनना और समझना कितना ज़रूरी है।”
प्रिंसिपल (गंभीर होते हुए):
“यह तो अच्छी बात है, लेकिन याद रखना, हर टीम में चुनौतियां आती हैं। जब आप एक-दूसरे के खिलाफ नहीं, बल्कि एक-दूसरे के साथ खड़े होते हो, तभी असली टीम बनती है। तुमने वर्कशॉप में एक शुरुआत की है, अब इसे बनाए रखना तुम्हारी ज़िम्मेदारी है।”
सुनीता:
“सर, हमने तो अब एक-दूसरे के साथ तालमेल बैठा लिया है। अब हम हर प्रोजेक्ट में इसी तरह से काम करेंगे।”
महेश (हंसते हुए):
“हाँ सर, और अब अगर कोई समस्या आएगी तो हम पहले उसे मिलकर सुलझाएंगे, न कि एक-दूसरे पर आरोप लगाएंगे।”
प्रिंसिपल (थोड़ा मुस्कुराते हुए, लेकिन अब भी सख्त):
“ठीक है। मुझे यह देखना है कि तुम अपनी बातों पर कितने कायम रहते हो। स्कूल में कई और प्रोजेक्ट्स आने वाले हैं। और मुझे उम्मीद है कि तुम तीनों उसमें भी इस टीम भावना को जारी रखोगे।”
(इतने में एक नया टीचर, अजय, स्टाफ रूम में आता है। वह थोड़ा घबराया हुआ लगता है, और अपने नए प्रोजेक्ट की योजना के बारे में बात करता है।)
अजय:
“सर, मुझे कुछ मदद चाहिए। यह नया प्रोजेक्ट थोड़ा मुश्किल लग रहा है। मैं नहीं समझ पा रहा कि इसे कैसे शुरू करूं।”
(रमेश, सुनीता और महेश एक-दूसरे की ओर देखते हैं और फिर अजय की मदद के लिए आगे आते हैं।)
रमेश (अजय से):
“कोई बात नहीं, अजय। हम तीनों मिलकर तुम्हारी मदद करेंगे। यह नया प्रोजेक्ट तुम्हारे लिए भी आसान हो जाएगा।”
सुनीता:
“हाँ, तुम इसे अकेले करने की कोशिश मत करो। हम सब साथ हैं, और मिलकर इसे सुलझा लेंगे।”
महेश:
“बिल्कुल! हमें बस एक-दूसरे का साथ देना है, और फिर सब कुछ ठीक हो जाएगा।”
प्रिंसिपल (संतुष्टि के साथ):
“यही है टीम वर्क की असली परिभाषा। जब एक साथ मिलकर काम किया जाता है, तो कोई भी काम मुश्किल नहीं होता। अब मैं देखना चाहता हूँ कि यह भावना स्कूल के हर कोने में फैल जाए।”
(अजय मुस्कुराता है और तीनों की मदद के लिए धन्यवाद देता है। प्रिंसिपल मोहन सिंह दूर से यह सब देख रहे हैं, उनके चेहरे पर हल्की मुस्कान है।)
प्रिंसिपल (मुस्कुराते हुए):
“अच्छा काम! अब बस यह ध्यान रखना कि यह एकता बनी रहे। और जब भी कोई नई चुनौती आए, तो आप लोग इसे साथ मिलकर हल करें। यही स्कूल को बेहतर बनाएगा।”
(तीनों अध्यापक प्रिंसिपल की बातों पर सहमति जताते हैं और अजय के साथ बैठकर नए प्रोजेक्ट की योजना बनाने लगते हैं।)
प्रिंसिपल (अपने आप से, जाते हुए):
“शायद अब मैंने जो बीज बोया था, वह सही दिशा में बढ़ रहा है।”
(प्रिंसिपल सरोज सिंह स्टाफ रूम से बाहर निकलते हैं। अंदर का माहौल अब पूरी तरह से सहयोग और सद्भाव का है। तीनों अध्यापक मिलकर काम कर रहे हैं, और अजय भी उनके साथ आत्मविश्वास से जुड़ता है।)
दृश्य समाप्त
दृश्य 5: प्रिंसिपल का ट्रांसफर
(स्टाफ रूम का दृश्य। रमेश, सुनीता, महेश और अन्य टीचर बैठे हुए हैं। माहौल गंभीर है, क्योंकि कुछ देर पहले ही प्रिंसिपल सरोज सिंह के ट्रांसफर का आदेश आया है। सभी अध्यापक अपने-अपने विचारों में खोए हुए हैं। रमेश और सुनीता दुखी हैं, जबकि महेश और एक अन्य स्टाफ सदस्य, शर्मा जी, थोड़े प्रसन्न दिखाई दे रहे हैं।)
रमेश (गहरी सांस लेते हुए):
“मुझे यकीन नहीं हो रहा कि सर का ट्रांसफर हो गया है। उन्होंने हमारे स्कूल को कितनी मेहनत से इस मुकाम तक पहुंचाया था।”
सुनीता (चिंतित स्वर में):
“सच में, रमेश। उन्होंने हमारी टीम को एकजुट किया, हमें सिखाया कि एक साथ काम कैसे करना है। अब उनके बिना यह स्कूल कैसा लगेगा?”
महेश (हल्की मुस्कान के साथ, शर्मा जी की ओर देखते हुए):
“कुछ लोग जाते हैं और नई शुरुआत करते हैं। वैसे भी, अब हमें अपनी टीम को नए तरीके से चलाने का मौका मिलेगा। हमें उनकी सख्ती से बचने का थोड़ा मौका तो मिलेगा, है ना शर्मा जी?”
शर्मा जी (हंसते हुए):
“हां महेश, अब कम से कम कोई हमारे हर कदम पर नज़र रखने वाला नहीं रहेगा।”
(रमेश और सुनीता, महेश और शर्मा जी की बातें सुनकर असहज महसूस करते हैं।)
रमेश (थोड़ा गुस्से में):
“तुम्हें यह मज़ाक लग रहा है, महेश? सर ने इस स्कूल को अनुशासन और जिम्मेदारी का महत्व सिखाया है। अब उनके बिना क्या स्कूल वैसे ही चल पाएगा?”
महेश (सहज रहते हुए):
“देखो, रमेश। मैं यह नहीं कह रहा कि उन्होंने कुछ गलत किया। लेकिन हमें भी एक मौका चाहिए जहां थोड़ा आराम मिले। हमेशा उनके दबाव में काम करना आसान नहीं था।”
सुनीता (गहरी सोच में):
“फिर भी, हमें उनका सम्मान करना चाहिए। हमें उनकी विदाई पार्टी की योजना बनानी चाहिए, ताकि कम से कम हम उन्हें सही तरीके से अलविदा कह सकें।”
(इस पर स्टाफ रूम में बहस शुरू हो जाती है। कुछ अध्यापक रमेश और सुनीता का समर्थन करते हैं, जबकि महेश और शर्मा जी विदाई पार्टी की योजना बनाने के लिए उत्साहित नहीं होते।)
महेश (थोड़ा असहमति जताते हुए):
“विदाई पार्टी? क्या यह ज़रूरी है? हम सब व्यस्त हैं, और सर खुद तो इतने सख्त थे कि कभी भावनाओं को तवज्जो नहीं दी।”
शर्मा जी:
“हां, और कौन जानता है कि सर खुद इस तरह की पार्टी में दिलचस्पी रखते हैं या नहीं।”
रमेश (गुस्से में):
“यह सम्मान का सवाल है, महेश! यह सिर्फ पार्टी नहीं है, यह उनकी सेवा के लिए हमारी कृतज्ञता दिखाने का एक तरीका है।”
सुनीता (समझाने के लहजे में):
“हम सबको एक बार फिर से एकजुट होना चाहिए, चाहे हमारी राय कुछ भी हो। हमें यह तय करना है कि हम उनके जाने से पहले उन्हें एक अच्छी विदाई दें।”
(लेकिन महेश और शर्मा जी विदाई पार्टी की जिम्मेदारी लेने से इंकार करते हैं। इसका असर बाकी स्टाफ पर भी पड़ता है, और सभी धीरे-धीरे अपने कामों में उलझ जाते हैं।)
(कुछ समय बाद, प्रिंसिपल सरोज सिंह स्टाफ रूम में आते हैं। उनके चेहरे पर हल्की थकान और उदासी का भाव है।)
प्रिंसिपल (गंभीरता से):
“मुझे पता चला है कि मेरा ट्रांसफर हो चुका है, और मैं जल्द ही यहां से जा रहा हूं। मुझे उम्मीद थी कि हम साथ मिलकर कुछ और बेहतरीन काम करेंगे, लेकिन शायद किस्मत को यही मंजूर था।”
(अध्यापक उनके शब्द सुनकर थोड़े असहज हो जाते हैं। रमेश और सुनीता की आंखों में उदासी है, जबकि महेश और शर्मा जी अपनी नज़रें दूसरी तरफ कर लेते हैं।)
रमेश (भावुक होते हुए):
“सर, हम आपके जाने से दुखी हैं। आपने हमें बहुत कुछ सिखाया। हम आपको याद करेंगे।”
प्रिंसिपल (हल्की मुस्कान के साथ):
“मैं भी आप सबको मिस करूंगा। लेकिन मेरी एक आखिरी सलाह है: जो मैंने यहां शुरू किया है, उसे आगे ले जाना तुम्हारी ज़िम्मेदारी है। एक-दूसरे के साथ रहना और मिलकर काम करना। यही सबसे बड़ा सबक है।”
(वहां पर माहौल में एक अजीब-सी चुप्पी छा जाती है। किसी ने विदाई पार्टी की बात भी नहीं उठाई, और प्रिंसिपल यह देखकर समझ जाते हैं कि स्टाफ में फिर से वही पुराने मतभेद आ चुके हैं।)
प्रिंसिपल (थोड़ी उदासी के साथ, जाने के लिए उठते हुए):
“खैर, मुझे अब जाना होगा। उम्मीद करता हूँ कि तुम सब एकजुट रहोगे, भले ही मैं यहां न रहूं।”
(प्रिंसिपल सरोज सिंह स्टाफ रूम से बाहर निकलते हैं। उनकी आंखों में हल्की उदासी है, लेकिन वह इसे छिपाते हैं। स्टाफ रूम में बाकी अध्यापक चुपचाप बैठे रहते हैं, और कोई उन्हें रोकने की कोशिश नहीं करता।)
(जैसे ही प्रिंसिपल कमरे से बाहर निकलते हैं, रमेश और सुनीता एक-दूसरे की ओर देखते हैं।)
रमेश (उदासी से):
“हमसे गलती हो गई। हमें उन्हें सही तरीके से विदाई देनी चाहिए थी।”
सुनीता (गंभीर स्वर में):
“हां, लेकिन अब बहुत देर हो चुकी है। शायद हम सबको अभी भी टीम वर्क के बारे में बहुत कुछ सीखना बाकी है।”
(महेश और शर्मा जी एक-दूसरे की ओर देखते हैं, लेकिन कुछ नहीं कहते। स्टाफ रूम का माहौल अब पहले से भी अधिक गंभीर और बोझिल हो गया है।)
(बाहर, प्रिंसिपल सरोज सिंह अकेले स्कूल गेट की ओर बढ़ते हैं, बिना किसी विदाई के, और उनका जाना स्कूल के एक युग के अंत की तरह लगता है।)
दृश्य समाप्त
कलम घिसाई