सच, कितना बदल गया हूँ
सच, कितना बदल गया हूँ
अब न रूप
रहा न रंग
धन न दौलत
रिश्ते न नाते
प्यार न यार
शोहरत न नाम
कितना बदल
गया हूँ न मैं…
खूँटी पर टँगे कपड़े
कब से नहीं बदले
पूछती है वो अक्सर
कब बदलोगे…
मेरा जिस्म इनको
अब ढो नहीं पता
टूट जाता है…
न टाई न बेल्ट
न जूते न मौजे
न इत्र न गुलाब
तुम कैसे हो
गये आफ़ताब।।
सूरज से भिड़ने को
दिल नहीं करता
रात आती है, और
चली जाती है..
देखता हूँ गगन तो
लगता है जैसे, वहाँ भी
बेवजह इतना मेला है
सूरज भी अकेला
चाँद भी अकेला है
दोनों का एक ही कर्म है
उसका तपना
उसका जगना
परवाह किसे है…?
जिनके लिये तपता है
कोई देखता नहीं
जिनके लिये जगता है
कोई जगता नहीं।।
वहाँ भी दुनिया चल
रही है
यहाँ भी दुनिया चल
रही है।।
कौन बताये इस खूँटी को
कितना बदल गया हूँ मैं..!!
हाहा…
मैं कपड़े नहीं बदल रहा
एक जगह टंगा हूँ…!!
सूर्यकान्त