सच्चाइयाँ वो अब कहाँ
कविता जहाँ पर जन्म ले तन्हाइयाँ वो अब कहाँ
कुछ शब्द हैं पर भाव की गहराइयाँ वो अब कहाँ
फूलों भरी वो वादियाँ कलकल कहाँ झरनों की अब
झूले कहाँ, सखियाँ कहाँ, अमराइयाँ वो अब कहाँ
अट्टालिकाएं चूमती अब तो गगन को जा रहीं
तालाब, नदिया, भोर की अरुणाइयाँ वो अब कहाँ
दीवार चारों ओर अब तो नफरतों की खिंच रही
मिल बैठ हो गपशप जहाँ अँगनाईयां वो अब कहाँ
दूरी सफर की कम हुई, लेकिन दिलों की बढ़ गई
जो साथ में हर वक्त थीं, परछाइयाँ वो अब कहाँ
कोई मनाता है कहाँ रूठे हुए प्रियतम को अब
मनुहार निश्छल प्रेम की ऊँचाइयाँ वो अब कहाँ
दीपावली हो ईद हो , दिखती नहीं वो रौनकें
हैं रंग होली के कहाँ, भौजाइयाँ वो अब कहाँ
व्यापार चारों ओर अब, बिकती यहाँ हर चीज है
इंसानियत इंसान की अच्छाइयाँ वो अब कहाँ
मक्कारियाँ ही आदमी को रास आतीं आजकल
है बोलबाला झूठ का सच्चाइयाँ वो अब कहाँ