सखा कान्हा और कन्हैया
सखा कान्हा और कन्हैया
कृष्ण और सुदामा,
दोनों का गहरा था याराना,
वर्षों बाद याद आई कृष्ण सखा की
कि….था सुदामा को मिलने जाना,
वो था भिक्षुक, कृष्ण था राजा,
सबसे सुंदर था ये दोस्ताना।
चले जब सुदामा…
मैं भिक्षुक,,,,,क्या ले जाऊं उपहार??
सुदामा ने अपनी भार्या को बोला,,,,,,
तीन मुठ्ठी तंदुल से बनाई छोटी पोटली
ले जाओ ये मृदुल उपहार !!!
सुशीला का था ये सुझाव।
फिर भी संशय में थे सखा सुदामा,
उचित होगा उपहार में ले जाना
यों चंद चावल के दाना,,,,,,
सुदामा पत्नी सुशीला पति को समझाया
मैंने कृष्ण को जाना।
उपहार छोटा हो बड़ा,, इससे क्या लेना!
सच्चा मित्र देखता है भावना,
वो तो सबके है कान्हा,
जैसा जिस के दिल ने उन्हें माना
उस ने उनको उसी रूप में पाया।
नंद, यशोदा का नटखट लल्ला,
व्रज में गोपियों का माखनचोर कान्हा,
गुरुकुल के लिए वो बने कन्हैया,
राधिका के वो प्रिय मनसुखा,
देखी हमने कृष्ण की विराटता,
भक्तों के बन जाते दुखहर्ता।
बोले जा रही ब्राह्मणकुल की सुशीला,
देख मुस्कराकर बोले सुदामा
कैसे जान पाई तुम??
की इतना मधुर है कान्हा,,,,,,
हंस कर बोली बामा!!
मैंने तो मनकी आंखों से मैंने जाना,
ऐसे है सबके मनमोहन कान्हा!!!!
– सीमा गुप्ता (अलवर)राजस्थान