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11 Sep 2022 · 9 min read

*सुप्रसिद्ध हिंदी कवि डॉक्टर उर्मिलेश ः कुछ यादें*

सुप्रसिद्ध हिंदी कवि डॉक्टर उर्मिलेश ः कुछ यादें
_______________________________________
सुप्रसिद्ध हिंदी कवि स्वर्गीय डॉक्टर उर्मिलेश से मेरा आत्मीय संबंध 13 जुलाई 1983 को आरंभ होता है ,जब मेरे विवाह के अवसर पर उन्होंने एक सुंदर विवाह गीत जिसे सेहरा भी कहते हैं ,लिख कर भेजा था और उसे कन्या पक्ष की ओर से मेरे ससुर जी श्री महेंद्र प्रसाद गुप्त जी के द्वारा प्रकाशित किया गया था । पाँच छंदों में लिखा गया यह लंबा गीत था । प्रत्येक छंद में 6 – 6 पंक्तियाँ थीं। गीत का आरंभ इन सुंदर पंक्तियों से हो रहा था :-
मन के भोजपत्र पर लिखकर ढाई अक्षर प्यार के
जीवन – पथ पर आज चले हैं दो राही संसार के
××××××××××××××××××××××××××
( 1 )
नर -नारी का मिलन सृष्टि के संविधान का मूल है
यह समाज समुदाय राष्ट्र की उन्नति के
अनुकूल है
हर आश्रम से श्रेष्ठ गृहस्थाश्रम है कहते शास्त्र हैं
अन्य आश्रम तो जीवन से रहे पलायन मात्र हैं
इस आश्रम में ही मिलते हैं पुण्य सृष्टि- विस्तार के
जीवन पथ पर आज चले हैं दो राही संसार के
( 2 )
रवि – मंजुल के मन – पृष्ठों को नई जिल्द में बाँधकर
यह क्षण एक किताब बन गए “मिलन” शीर्षक साधकर
दिनकर की “उर्वशी” नाचती “कामायनी” प्रसाद की
“प्रियप्रवास” की राधा पहने पायल नव-उन्माद की
“साकेत” की उर्मिला गाती गीत आज श्रंगार के
जीवन – पथ पर आज चले हैं दो राही संसार के
( 3 )
यह रिश्ता “महेंद्र” का ऐसा “श्रीयुत रामप्रकाश” से
जैसे धरा मिली हो अपने आरक्षित आकाश से
इस रिश्ते के संपादन से हुआ स्वप्न साकार है
“सहकारी युग” के प्रष्ठों का शब्द – शब्द बलिहार है
इस रिश्ते से भाग्य जग उठे हैं “राजेंद्र कुमार” के
जीवन पथ पर आज चले हैं दो राही संसार के
( 4 )
शब्दों के गमले में सुरभित थी जो अर्थों की कली
आज आपके घर जाएगी वह निर्धन की लाडली
होठों पर मुस्कान आँख में भर – भर आता नीर है
मन की बगिया में सुधियों का कैसा बहा समीर है
कन्या – धन से बड़े नहीं है मूल्य किसी सत्कार के
जीवन – पथ पर आज चले हैं दो राही संसार के
( 5 )
नई डगर के नए साथियों गति का सतत विकास हो
संदेहों के अंधकार में ज्योतित दृढ़ विश्वास हो
जब तक मानस के दोहों से जुड़ी रहें चौपाइयाँ
तब तक रवि प्रकाश – मंजुल की अलग न हों परछाइयाँ
पात – पात आशीष दे रहे मन की वंदनवार के
जीवन – पथ पर आज चले हैं दो राही संसार के
■■■■■■■■■■■■■■■■■■■
डॉक्टर उर्मिलेश जी की अनुपस्थिति में विवाह के अवसर पर जयमाल के समय इसे हिंदी के स्थानीय प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ छोटे लाल शर्मा नागेंद्र ने बारातियों के सामने पढ़कर सुनाया था । गीत मधुर था और भाषा सरल थी । हृदय में बस गया और बस गए डॉक्टर उर्मिलेश । अब उनसे एक आत्मीय रिश्ता बन चुका था ।
1986 में मेरी पुस्तक रामपुर के रत्न जब प्रकाशित हुई तब उसकी भूमिका के लिए उर्मिलेश जी ने भी कुछ पंक्तियाँ लिख कर भेजी थीं और वह पुस्तक के प्रारंभिक प्रष्ठों पर प्रकाशित भी हुई थीं।
1988 में मेरी पुस्तक गीता विचार प्रकाशित हुई । उसमें गीता के 18 अध्यायों की व्याख्या की गई थी। मैंने उस पुस्तक की एक प्रति डॉक्टर उर्मिलेश को भी भेजी थी ।उन्होंने मन लगाकर पुस्तक को पढ़ा और लगभग डेढ़ हजार शब्दों की विस्तार से समीक्षा लिख कर भेजी ,जो हिंदी साप्ताहिक सहकारी युग के दिनांक 30 जुलाई 1988 अंक में प्रकाशित हुई । पढ़ कर मन प्रसन्न हो गया। इतने विस्तार से किसी पुस्तक का आकलन तथा उसकी गहराइयों में जाकर जाँच – पड़ताल पाठकों के सामने प्रस्तुत कर देना कोई हँसी – खेल नहीं होता । इसके लिए समय भी देना पड़ता है और मन भी देना पड़ता है । डॉक्टर उर्मिलेश के मेधावी कुशल समीक्षक होने का पता यह समीक्षा बता रही है ।
उसके बाद मेरे एक कहानी संग्रह के लोकार्पण के लिए उर्मिलेश जी 14 मार्च 1990 को रामपुर आए तथा टैगोर शिशु निकेतन के विशाल प्रांगण में उनका कार्यक्रम रखा गया । पुस्तक का नाम था रवि की कहानियाँ। उर्मिलेश जी गजलकार तो थे ही ,अतः उन्होंने पुस्तक के नाम के अनुरूप एक ग़ज़ल भी तैयार कर ली थी । इसकी प्रारंम्भिक पंक्तियाँ मुझे अभी भी याद हैं:-
वैसे तो बहुत खास हैं रवि की कहानियाँ
लेकिन हमारे पास हैं रवि की कहानियाँ
ऊपर से पढ़ोगे तो कहानी ही लगेंगी
अंदर से उपन्यास हैं रवि की कहानियाँ
पूरे कार्यक्रम में अकेले डॉक्टर उर्मिलेश का ही आकर्षण था । श्रोताओं को बाँध कर रखने की उनमें अद्भुत सामर्थ्य थी। लोग वाह-वाह कर उठे । कार्यक्रम सफल रहा । लेकिन जो गहरी आत्मीयता उर्मिलेश जी के व्यवहार में थी ,उसका उल्लेख किए बिना मैं नहीं रह सकता । मंच पर जिलाधिकारी ,जिला जज तथा पुलिस अधीक्षक तीनों ही विराजमान थे । मंच अधिक बड़ा नहीं था । मैंने महसूस किया था कि उर्मिलेश जी अत्यंत विनम्रता पूर्वक मंच पर जहाँ – जैसी जगह मिली ,उसके अनुसार अपने को “एडजस्ट” करते हुए तीनों अतिथियों को इस प्रकार से सम्मान प्रदान कर रहे थे मानो यह कार्यक्रम डॉक्टर उर्मिलेश का हो और उनके इस कार्यक्रम में जिले के तीन वरिष्ठ स्तंभ मेहमान के तौर पर आमंत्रित किए गए हों। डॉक्टर उर्मिलेश की उदारता से मेरा मन उनके प्रति गहरे अपनत्व से भर चुका था । अब मुझे उनका स्नेह एक छोटे भाई की तरह प्राप्त हो रहा था ।
इसी क्रम में जब 1985-90 के आसपास डॉ उर्मिलेश ने एक कविता संग्रह प्रकाशित किया , तब उसमें मेरी एक अतुकांत कविता को भी उन्होंने स्थान दिया , जिसके लिए मैं उनका आभारी हूँ तथा काव्य के क्षेत्र में मुझे प्रोत्साहित करने की दृष्टि से उनके इस कदम को मैं विशेष आदर के भाव से स्मरण करता हूँ।
कवि सम्मेलनों में डॉक्टर उर्मिलेश को सुनने का समय-समय पर अवसर मिलता रहा । मैं उन्हें सस्वर काव्य पाठ करते हुए सुनता था । वह भावनाओं में डूब कर पूरे सुर में कविता सुनाते थे।
एक बार हमने जब डॉक्टर उर्मिलेश को अपनी एक पुस्तक के लोकार्पण के लिए आमंत्रित किया , तब उन्होंने तुरंत स्वीकृति दे दी। लेकिन कुछ समय बाद ही मेरे पास उनका एक पत्र आया । पत्र पर 28 – 9 – 2000 तिथि अंकित थी । इसमें उन्होंने लिखा था कि जैसे ही भाई साहब श्री महेंद्र प्रसाद गुप्त जी का फोन पुस्तक के लोकार्पण के लिए आया तो मैंने स्वीकृति दे दी । क्योंकि एक तो भाई साहब का फोन था और दूसरा यह कि कार्यक्रम आप से जुड़ा हुआ था । लेकिन फिर बाद में जब मैंने अपनी डायरी में आगे के कार्यक्रमों को देखा, तब वह दिन किसी और जगह के लिए बुक था । केवल एक स्थान की बात नहीं थी। उसके बाद आगे के और भी कार्यक्रम उसी श्रंखला में जुड़े हुए थे ।अतः क्षमा याचना के साथ उर्मिलेश जी ने वह लंबा मार्मिक पत्र केवल इसीलिए लिखा कि वह नहीं चाहते थे कि कोई गलतफहमी हमारे और उनके बीच किसी भी स्तर पर शेष रह जाए । इतने आत्मीयता से भरे हुए पत्र के बाद भला कोई शिकवा – शिकायत कैसे रह सकती थी ? उर्मिलेश जी की विवशता को हमने भी समझा और उसके बाद हमारा सफर आगे बढ़ता चला गया । उस कार्यक्रम के लिए उन्होंने बदायूँ के ही कविवर डॉक्टर मोहदत्त साथी जी का नाम सुझाया था तथा डॉक्टर मोहदत्त साथी जी के कर – कमलों से पुस्तक का लोकार्पण समारोह बहुत सफल रहा था ।
डॉक्टर उर्मिलेश का पत्र दिनांक 28- 9- 2000 इस प्रकार है:-
प्रिय श्री रवि प्रकाश जी
आयुष्मान !
आपकी कहानियों के सद्यः प्रकाशित संग्रह के लोकार्पण समारोह में स्वीकृति देकर भी मैं सम्मिलित नहीं हो पा रहा हूँ, मेरी यह विवशता मात्र व्यवसाय केंद्रित न होकर व्यवहार केंद्रित अधिक है । बड़े भाई श्रद्धेय महेंद्र जी का फोन आते ही मैं बिना कुछ सोचे – समझे और डायरी देखे बिना ही एकदम हाँ कर बैठा । एक तो उनका फोन और प्रसंग आप से जुड़ा हुआ – ऐसे में हाँ नहीं करता तो क्या करता ! बहरहाल जब दूसरे दिन श्रीमती जी ने 4 अक्टूबर को आयोज्य उज्जैन के कार्यक्रम का स्मरण कराया , तब मैंने डायरी देखी और यहीं से मेरे धर्म – संकट का दौर शुरू हुआ । भाई साहब से लगातार फोन संपर्क करना चाहा लेकिन फोन नहीं मिला । यह तो बाद को पता चला, फोन खराब था । बात केवल उज्जैन की ही नहीं थी । नीमच ,सारणी, इटारसी ,उज्जैन, झालरा पाटन, नागदा फिर बंबई से सूरत तक की श्रंखला में मुझे सम्मिलित होना था । सारणी ,नीमच, इटारसी के कार्यक्रम भाई साहब को स्वीकृति देने के बाद ही मिले थे । मेरे विषय में और धारणाएँ कैसी भी हों, लेकिन यह शिकायत शायद ही कोई कर सके कि मैं स्वीकृति देकर किसी कारण नहीं पहुँचता हूँ। लेकिन आप के प्रसंग को लेकर जहाँ इस धारणा से आप आहत हुए होंगे, उससे कम मैं भी नहीं हुआ हूँ। 4 अक्टूबर के कार्यक्रम को छोड़ने का मतलब एक साथ कई लोगों को चोट पहुँचाना था । भाई साहब को मना करने का साहस भी बहुत मुश्किल से जुटा पाया । सोचा आप सब तो घर के हैं ,अंततः क्षमा कर देंगे। इसलिए साहस जुटाना भी सरल हो पाया । मैंने अपने वरिष्ठ रचनाकार साथी डॉ. मोहदत्त जी का नाम भाई साहब को सुझाया , उन्होंने मुझे क्षमा प्रदान करते हुए मेरे प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार लिया, यह उनकी विशाल हृदयता और अपनत्व का ही परिचायक है।
यह पत्र लिखकर मैं स्वयं को काफी हल्का महसूस कर रहा हूँ क्योंकि पारिवारिकताओं को ऐसे प्रसंग कभी-कभी भीतर तक आहत कर जाते हैं और मैं नहीं चाहता कि कुछ भी छिपा कर मैं अंतरंगताओं को जियूँ।
आपका कहानी संग्रह अपने समय और समाज को ऐसा अवश्य देगा , जिसकी अपेक्षा मैं आपकी लेखनी से करता रहा हूँ। लोकार्पण निर्विघ्न और सानंद संपन्न हो, इसी सद्भावना के साथ
सप्रेम
सदैव
उर्मिलेश
28-9- 2000
वह समय-समय पर मेरे लेखन की सराहना करके मेरा उत्साहवर्धन करते थे। कारगिल विजय के उपरांत मेरी काव्य पुस्तक सैनिक को पढ़ने के बाद उन्होंने मुझे सराहना का जो पत्र लिखा , वह मुझे विशेष रुप से स्मरण आ रहा है। पत्र इस प्रकार है:-
“सैनिक” प्रखर चिंतक और संवेदनशील कवि श्री रवि प्रकाश के राष्ट्रीय मानस से उद्भूत एक ऐसा काव्य संग्रह है जो प्रत्येक भारतीय को बल और बलिदान की प्रेरणा से अभिभूत करता है। कारगिल संदर्भों को उद्घाटित करते हुए इस संग्रह के गीत और कविताएँ भले ही हमें तात्कालिक रूप से उद्बुद्ध करती हों, किंतु तात्कालिकता भी साहित्य का एक गुण होता है । कोई भी संवेदनशील रचनाकार अपने समय से कटकर नहीं जी सकता । मुझे प्रसन्नता है कि श्री रवि प्रकाश ने अपने साहित्यिक दाय का निर्वहन कर अपने समय पर सही दृष्टि डाली है । इस संग्रह की रचनाओं की सबसे बड़ी खूबी सामयिकता के साथ भावी भारत के स्वाभिमानी स्वरूप को अक्षुण्ण रखने की चिंतना से हमें जोड़ना है । अतीत में हमारे राजनेताओं से हुई भूलों का जहाँ इन रचनाओं में मूलोच्छेदन है ,वहीं भविष्य के भारत – निर्माण के लिए एक आग्रहपूर्ण आह्वान भी है।
कुल मिलाकर श्री रवि प्रकाश द्वारा प्रणीत “सैनिक” काव्य संग्रह संपूर्ण कारगिल प्रसंग से जुड़े संदर्भों को उद्घाटित करते हुए भारत के पौरुषेय बलिदानियों की शौर्य गाथा को जहाँ हमारे समक्ष रखता है , वहीं इन बलिदानों के प्रति हमें कृतज्ञ और आभारित होने का सोच भी पैदा करता है। संग्रह की कई गीति रचनाएँ अपनी गेयता और स्मरणकता के लिए याद की जाएँगी । सभी रचनाओं में छांदिक निर्वाह है और बिंबात्मक भाषा के कारण ये रचनाएँ कारगिल युद्ध के घटना-क्रमों को आसानी से हमारे समक्ष रखने में सक्षम हैं। हिंदी की युद्ध काव्य – परंपरा में “सैनिक” काव्य – संग्रह को सादर स्थान मिलना चाहिए।
उर्मिलेश
12-1-20 10
(डॉ. उर्मिलेश)
रीडर /अध्यक्ष ,हिंदी विभाग
नेहरू मेमोरियल शिव नारायण स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बदायूँ (उत्तर प्रदेश)
आज जब मैं उनका स्मरण करता हूँ तो लगता है कि एक विराट व्यक्तित्व के साथ इतना सहज ,सरल और आत्मीय संबंध बन गया था कि हम उन्हें और उनके महामानवत्व को समझ ही नहीं पाए ।
उनके पिताजी द्वारा लिखी गई एक काव्य – पुस्तक की जब मैंने समीक्षा लिखी थी ,तब उसके बाद उनके पिताजी ने आगे जो पुस्तकें प्रकाशित हुईं, उन्हें बहुत स्नेहपूर्ण टिप्पणी के साथ मुझे भेंट – स्वरूप प्रेषित की थीं। मैंने उनकी समीक्षा भी लिखी थी और इस तरह पारिवारिक संबंध न केवल उर्मिलेश जी से बल्कि उनके पिता जी से भी बन गया था ।
कविता उर्मिलेश जी के जीवन का अभिन्न अंग बन गई थी । उनके छोटे भाई के विवाह का निमंत्रण – पत्र मुझे प्राप्त हुआ था । उस पर लिखी गई चार पंक्तियाँ अभी तक मुझे स्मरण आ रही हैं :-
राग – रंगों से आपका स्वागत
सब उमंगों से आपका स्वागत
जिनका संदर्भ प्यार होता है
उन प्रसंगों से आपका स्वागत
उर्मिलेश जी निरंतर ऊँचाइयों को छूने की ओर अग्रसर थे। इससे पहले कि वह शीर्ष पर पहुँचते ,अकस्मात उनका निधन हो गया । मुझे विशेष दुख हुआ क्योंकि उन जैसी आत्मीयता से भरा हुआ कोई दूसरा व्यक्ति उनके बाद मेरी निगाह में नहीं था। उनकी स्मृति को मेरे प्रणाम।
————————————————————
लेखक : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451

Language: Hindi
162 Views
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