संस्कारों को भूल रहे हैं
आडंबर की होड़ लगी है
संस्कारों को भूल रहे हैं
गैरों की गलबहियाॅ॑ होकर
मात पिता को भूल रहे हैं-आडंबर की होड़
मानवता का फर्ज निभाते
औरों को नित्य राह दिखाते
चलते-चलते देखो इनको
खुद का रास्ता भूल रहे हैं-आडंबर की होड़
माॅ॑ तड़पे फर्ज नहीं दिखता
पिता भटके फर्क नहीं पड़ता
जिनसे है इनका यह जीवन
कैसे उनको कुछ भूल रहे हैं-आडंबर की होड़
रिश्ते नाते तोड़ के रहना
अपनों से मुॅ॑ह मोड़के रहना
प्रेम अपनत्व मान मर्यादा
कैसे सब कुछ भूल रहे हैं-आडंबर की होड़
चले गए सब छोड़ अकेले
बचपन में जिस गाॅ॑व में खेले
शहरी बाबू दौलतमंद होकर
‘V9द’ क्यों ऐसे फूल रहे हैं-आडंबर की होड़