संस्कारों की मिट्टी विरान
संस्कारों की मिट्टी विरान
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बिकने लगा है आम इन्सान
फिसलने लगी खुली जुबान
इंसानियत के बाजार में
गिरवीं रख दिया है ईमान
मानवीय मूल्य है दांव पर
संस्कारों की है मिट्टी विरान
जन को जन की चाह नहीं
मिट रहा है भ्रम जाल मान
संस्कृति का विनाश देखिए
समाज को भारी नुकसान
खोखलें हुए दावे सारे
खुली है पोल खाली दुकान
लिहाज भी दरकिनार हुए
शर्म , हया ने छोड़े मैदान
वक्त की नजाकत देखिए
लूट ली है हरी भरी दुकान
मनसीरत भी है कहाँ बचा
रहेंगे न यह नामोनिशान
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)