“संस्कारों का पतन”
मैं मान रहा हूं,
हम जी रहे नवयुग में
हो गई संस्कारों के पतन की तैयारी,
सोयी प्रबुद्ध जनता सारी।
बार बार आंखे धो लेता हूँ,
तरुणाई का इश्क,प्यार देख कर !
बंद कर लेता हूँ आंखे,
चुंबन के दृश्य भरे बाजार देख कर !
याद आता हैं बचपन,
पाश्चात्यवादी संस्कार देख कर !
टूट गए बंधन विचारों के,
हतप्रभ हूं,ये नया संसार देख कर।
ये सच हैं तो क्या वो रहें हैं हम,
संस्कारो की क्यारी में !
मल्टीमीडिया की सेंध लगी हैं,
संस्कारो की तैयारी में !
इन सोख हवाओं में बिखर रहा हैं बचपन,
काँटे ही काँटे वो दिये हमने फुलवारी में !….. !
@nil (सागर मध्य प्रदेश)