संस्कारधर्मी न्याय तुला पर
उस
‘जजमान’ ‘न्यायाधीश प्रवर ने
अपने पंडित कुलजात कुलपंडित के
किशोरवय पुत्र को भी
दिया था ब्रह्मगंधी अधिमान
अपने घर आए पिता-पुत्र दोनों के
चरण छू लिए थे उसने
जबकि पंडित-सुत ने असहज संकोचवश
पीछे को खींच लेना चाहा था अपने पांव
तुलसी का पत्ता छोटा हो या कि बड़ा
तुलसी ही होता है –
बिलकुल यही कहा था उस वक्त
अविलम्ब निस्संकोच
उस संस्कारमंडित न्यायमूर्ति ने
ऐसे ही किसी संस्कारी मन न्यायपुरुष की बेंच में
गर चला जाए चकबाड़ावासी राजस्थानी दलित
राधेश्याम औ’ बाबूलाल बैरवा का
अनुच्छेद-17 का कोई भेद-केस
या फिर झज्जर-दुलीना का
धर्मदंभी गोरक्षकों द्वारा पंच दलित संहार न्याय प्रकरण
तो अपनी संस्कारधर्मी न्याय तुला पर
उसे निर्विकल्प न्याय-निर्णय देने में
क्योंकर वक्त लगेगा कि –
चमार का बेटा चमार ही होता है
भले वह पी-एच.डी. तक ही
क्यों न पढ़–लिख जाए
या कि साक्षात् सरस्वती-पूत ही
क्यों न बन दिखलाए
यह संस्कार–धर्म की गांठ
आखिर अब कब खुलेगी
क्यों न्यायक्षेत्रे भी
ऐसी कूढ़मग्जी गाँठ जड़ी है?