संवेदना
“संवेदना”
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मैं सोच में हूं,
क्या संवेदना बचीं है।
हमें अपने से ज्यादा,
गैरों के सम्मान की फिक्र होती थी।
आज दूर्भावना इतनी है,
कि मैं सोच में हूं,
क्या चेतना बचीं है।
शर्मशार,
मैं सोच में हूं,
क्या संवेदना . . . . . .
हर तरफ पशुता,
की मानसिकता लिये घुम रहे हैं दरिंदें।
जुल्म को अंजाम दे कर,
उड़ जाते हैं जैसे कोई शैतानी हैं परिंदें।
इंसान को इंसान से ही सबसे बड़ा खतरा है।
पहले प्यार फिर वार इंसान का ही पैंतरा है।
मैं सोच में हूं,
क्या इंसानियत बची है।
विश्वासघात,
मैं सोच में हूं,
क्या संवेदना . . . . . .
धार्मिक उन्माद में मद मस्त,
मानवता और भाईचारा उनके आगे है पस्त।
जान देना और लेना,
तो आज एक आम बात सी हो गई है।
दुःख और सुख में खड़े होते थे,
आज इंसानियत की मौत सी हो गई है।
इंसान को इंसान से,
एक मजहबी नफरत सी हो गई है।
मैं सोच में हूं,
क्या हैवानियत सजी है।
खबरदार,
मै सोच में हूं,
क्या संवेदना . . . . . .
नेताम आर सी