संवेदना – अपनी ऑंखों से देखा है
जीवन का नव अनुभव मैंने,
अपनी ऑंखों से देखा है ।
तपती जेठ दुपहरी देखी,
पूष की रात घनेरी देखी ।
भादौ मेघ गर्जना देखी,
शरद्ध दीप्ति विखेरी देखी ।
उदय-अस्त होते नित रवि को,
अपनी ऑंखों से देखा है ।।
संकट के बादल भी देखे,
नयनों में काजल भी देखे।
हाथ खनकती चूड़ी देखीं ,
पैरों में पायल भी देखे ।
दुनिया की सब चकाचौंध को ,
अपनी ऑंखों से देखा है ।।
मानवता को मरते देखा ,
अगर सत्य को डरते देखा।
दौलत के आगे विवेक को,
झुककर वंदन करते देखा।
संवेदना – शून्य मानव को ,
अपनी ऑंखों से देखा है ।।
शब्द भी देखे चित्र भी देखे,
सुंदर भाव पवित्र भी देखे ।
कभी राह में कांटे बोते,
बंधु और कुछ मित्र भी देखे ।
मगर लिखा ना विधि का टलते,
अपनी ऑंखों से देखा है ।।
कभी प्रेम निर्मल भी देखा,
ऑंखों को निर्जल भी देखा ।
संकट में नित उस ईश्वर को,
पास खड़े हरपल भी देखा ।।
निशा बीत नित नवल प्रात को,
अपनी ऑंखों से देखा है ।।
हाॅं अपनी आंखों से देखा है।।
– नवीन जोशी ‘नवल’
बुराड़ी, दिल्ली
(स्वरचित एवं मौलिक)