संवेदनहीन नग्नता”
संवेदनहीन नग्नता”
नग्नता की इस बाढ़ में, खो गया है मानवीय हृदय,बिकने लगे हैं आदर्श, लुप्त हो गई संवेदनाएं प्रखर।
शरीर के बाज़ार में, खो गई आत्मा की पहचान,हर कोई बेच रहा है, अपने अस्तित्व की जान।।
पोर्न की इस दुनिया में, मानवता की सीमा टूट गई,रीलों और फिल्मों ने, शुद्धता की कसम छोड़ दी।
संस्कृति की धरोहरें, नग्नता में घुल गईं,नवयुवकों के दिलों में, विकृतियाँ भर गईं।।
ज्ञान का प्रकाश फीका पड़ गया,अज्ञान की रात लंबी हो गई।
शरीर की भूख ने,मन की शांति को खा लिया।।
शिक्षा का सूरज ढल गया,धनवान और गरीब में फर्क मिट गया।
विचारों की पवित्रता में,शारीरिकता ने जहर घोल दिया।।
वो दिन दूर नहीं,जब संवेदनाएँ होंगी समाप्त,
शरीर की भूख में,खून की नदियाँ बहेंगी अपरंपार।।
ये नग्नता का बाजार,मानवता को ले जाएगा विनाश की ओर,
संवेदनहीनता बढ़ेगी,हिंसा होगी नापाक।।
समाज को चाहिए अब जागरण,संस्कृति का नया सृजन,
शरीर से ज्यादा आत्मा का मान हो,यही हो हर व्यक्ति का अभियान।।
इस नग्नता की आग में,हर कोई जल रहा है,
समाज को चाहिए बदलाव,तभी बचेगा मानवता का भव।।
शरीर की भूख पर,रखो नियंत्रण का पहरा,
मन और मस्तिष्क को,करो अब शुद्ध और पवित्र।।
संवेदनाएँ लौट आएं,मानवता का फिर से मान बढ़े,
इस नग्नता के अंधकार में,फिर से उजाला हो, यही प्रार्थना।।