संवेग बने मरणासन्न
अभिव्यक्ति के समुद्र में, मौत का सफर चल रहा है
प्यार, मोहब्बत, इंसानियत का, खात्मा चल रहा है
जी लो जिंदगी का सफर, हमें कब चले जाना है
संवेदनाएं खत्म हो रही, फिर भी जीवन चल रहा है
स्वतंत्रता स्वतंत्रता पुकारने से कुछ नहीं
अब तो हम अपनी मौत को पुकार रहे हैं
खत्म हो रहे हैं संवेग, भावनाएं ,इंसानियत
फिर भी बाहरी आवरण दिखा रहे हैं
वक्त का समंदर, किसी प्रकार गुजर जाता है
हार जीत की बाजी में ,संवेग मर जाता है
हम बने खुद्दार क्यों हैं? मानवता मारकर
हमारे अंदर की भावनाएं जल रही है
आंचल में प्यार का कटोरा लिए, घूम रहे हैं
संवेदों का हम खुले में कत्लेआम,कर रहे हैं
हमें अब इंसान कहने में भी, रोना लगता है
ये जलवा संवेगों का, हमें दिखाई नहीं देता है
हम तो बेबस हैं ,लाचार हैं, लेकिन कुछ नहीं कर रहे
हम तो पुजारी हैं भौतिकता के, रोना जी भर के रो रहे हैं
मरेंगे मारेगे आज नहीं तो कल ,सबको ही मरना है
दुश्मन हम किसी के नहीं संवेगों को मारना है।
हैवान कोई नहीं बनता संसार में
हम में से ही पैदा होते हैं जल्लाद और भगवान
जिसने अपनी सबसे पहले संवेदनाएं मारी
वे ही धरती के बन गए खुल्लमखुल्ला हैवान
सद्कवि प्रेमदास वसु सुरेखा