संवाद…
‘संवाद’ अचानक ये शब्द मेरे कानों में पड़े कि अब तो हमारे बीच का संवाद ही खत्म हो गया। और मैं कुछ सोचने पर विवश हो गई।
सालों किसी से बात ना हो तो लोग अक्सर ये ज़वाब देते हैं-
हमारा ‘रिश्ता’ इतना ‘परफेक्ट’ है
कि कोई संवाद की जरूरत ही नहीं…
या यूँ कह दें कि सालों साथ रहते-रहते एक दूसरे के प्रति समझ इतनी बढ़ जाती है कि संवाद की आवश्यकता ही नहीं रह जाती।
दोनों ही सूरते वास्तविक है किंतु अपूर्ण।
संवाद होना बहुत महत्वपूर्ण है। भले ही किसी भी माध्यम से क्यों ना हो… पर संवाद हो।
जब कोई इंसान खुद को सबसे किनारा कर लेता है तो उसका पहला लक्षण यही होता है कि वह संवाद खत्म कर देता है। यह जरूरी नहीं कि आप सभी को अपनी परेशानियाँ बताकर खुद को दुखी महसूस करवाएं। पर हाँ… सवाल में ही जवाब छुपा होता है। विचारों की अभिव्यक्ति के माध्यम अनेक है किंतु हृदय के भाव, विचार और उद्देश्य जिस माध्यम से भी पहुँचाया जाए उनका यथास्थान पहुँचना महत्वपूर्ण है। कभी-कभी संवाद का ठहराव एक पतली रेखा से गहरी खाई में तब्दील हो जाता है और व्यक्ति को आभास नहीं हो पाता। उसे तब वर्तमान घटना बहुत ही मामूली जान पड़ती है। निर्णय की स्थिति एक दिन में नहीं बनती। इसके लिए पीड़ा के लंबे अंतराल से गुजरना पड़ता है। यदि मन को ठेस पहुँचाई जाए तो निश्चय ही क्षमाप्रार्थी होना अनिवार्य है। मन की पीड़ा का कोई निश्चित ठौर नहीं है किंतु वचनों द्वारा उसे नासूर बनने से रोका जा सकता है। यदि इसके लिए प्रयास करने पड़े तो अवश्य ही करना चाहिए। आज तुम किसी की पीड़ा से अनभिज्ञ हो, हो सकता है जिस वक्त तुम अपने गहरे अवसाद में हो, सामने वाला निष्ठुर हो जाए।
व्यक्ति अपने प्रहार भूल जाता है, किंतु हृदय अपनी आघात नहीं भूल पाता।