संवाद आत्म-अवलोकन
पूछे अपने अपने मन से,
क्या है प्रकृति,
क्या है प्रवृति,
उलझन देता है,
सुलह भी,
फिर
कहाँ है विकृति,
कोई इंद्र जीता नहीं,
ये मन में भ्रम रहता है,
जागो,
इस तन-मन के तल पर,
तब बनती है,, स्वीकृति.
सेवक है,, है चौकीदार,
मालिक बन सहज रहें,
सौम्यता मालिक भान,
हृदय सम पुलकित रहे,
कर्मण्यता से युक्ति रचे.
अब कोई विषय-विकार नहीं,
खडे हो तुम पीरो साक्षी-भाव,
पहरेदार तुम हुए,
कैसे होगा, विचलित मन,
पहुंच गये तुम घर अपने,
दूर हुए,, दुनिया से सपने.
पूछे मन से अपने अपने.
कहां विलुप्त हुए सपने..