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7 Jun 2019 · 1 min read

संबोधि के क्षण

इन आंखों से नित दिन गुनता,
रहता था जिसके सपने,
वो भी तो देखे इस जग को,
नित दिन आँखों से अपने।

कानों में जो प्यास जगी थी,
वाणी जिसकी सुनने को,
वो भी तो बेचैन रहा था,
अक्सर मुझसे मिलने को।

पर मैं अक्सर अपनों में,
नित दिन हीं खोया रहता था,
दिन में तो चलता रहता,
सपनों में सोया रहता था।

जन्मों जन्मो से खुद को,
छलने से ज्ञात हुआ है क्या?
सच हीं तो है कभी सत्य,
स्वप्नों में प्राप्त हुआ है क्या?

निराशुद्ध था पावन निर्मल,
इसका बोध नहीं मुझको,
निज को हीं जो ठगता जगमें,
वो निर्बोध कहे किसको?

जन्मों की अब टूटी तन्द्रा,
मुझको ये संज्ञान हुआ,
प्राप्त नहीं कुछ भी किंचित,
केवल लुप्त अज्ञान हुआ।

कर्णों के जो पार बसा है,
बंद आँखे हैं जिसकी द्वार,
बिना नाद की बजती विणा,
वो ॐ है सृष्टि सार।

पाने को कुछ बचा नहीं और ,
खोने को ना शेष रहा,
मैं जग में जग है मुझमें कि,
कुछ भी ना अवशेष रहा।

हुआ तिरोहित अहमभाव औ,
जाना कर्म ना कर्ता हुँ,
वो परम तत्व वो परम सत्व ,
सृष्टि व्यापत हुँ, द्रष्टा हुँ।

अजय अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार सुरक्षित

Language: Hindi
324 Views
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