Sahityapedia
Sign in
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
9 Nov 2022 · 5 min read

संत नरसी (नरसिंह) मेहता

गुजराती साहित्य के आदि कवि संत नरसी मेहता का जन्म 1414 ई. में जूनागढ़ के निकट तलाजा ग्राम में एक नागर ब्राह्मण परिवार में हुआ था। माता-पिता का बचपन में ही देहांत हो गया था। इसलिए अपने चचेरे भाई के साथ रहते थे। ज्यादातर वे संतों की मंडलियों के साथ ही घूमा करते थे। 15-16 वर्ष की उम्र में उनका विवाह हो गया था।

कोई काम न करने पर भाभी उन पर बहुत कटाक्ष करती थी। एक दिन उसकी फटकार से व्यथित नरसिंह ‘गोपेश्वर’ के शिव मंदिर में जाकर तपस्या करने लगे। मान्यता है कि सात दिन के बाद उन्हें शिवजी के दर्शन हुए और उन्होंने श्रीकृष्ण की भक्ति और रासलीला के दर्शनों का वरदान मांगा। इस पर द्वारका जाकर रासलीला के दर्शन हो गए। अब नरसिंह का जीवन पूरी तरह बदल गया। भाई का घर छोड़कर वे जूनागढ़ में अलग रहने लगे। उनका निवास स्थान आज भी ‘नरसिंह मेहता का चौरा’ के नाम से प्रसिद्ध है। वे हर समय कृष्णभक्ति में तल्लीन रहते थे। उनके लिए सब बराबर थे। छुआछूत वे नहीं मानते थे और हरिजनों की बस्ती में जाकर उनके साथ कीर्तन किया करते थे। इससे बिरादरी ने उनका बहिष्कार तक कर दिया, पर वे अपने मत से डिगे नहीं।

पिता के श्राद्ध के समय और विवाहित पुत्री के ससुराल, उसकी गर्भावस्था में सामग्री भेजते समय भी उन्हें दैवी सफलता मिली थी। जब उनके पुत्र का विवाह बड़े नगर के राजा के वजीर की पुत्री के साथ तय हो गया। तब भी नरसिंह मेहता ने द्वारका जाकर प्रभु को बारात में चलने का निमंत्रण दिया। प्रभु श्यामल शाह सेठ के रूप में बारात में गए और ‘निर्धन’ नरसिंह के बेटे की बारात के ठाठ देखकर लोग चकित रह गए। हरिजनों के साथ उनके संपर्क की बात सुनकर जब जूनागढ़ के राजा ने उनकी परीक्षा लेनी चाही तो कीर्तन में लीन मेहता के गले में आकाश से फूलों की माला पड़ गई। निर्धनता के अतिरिक्त उन्हें अपने जीवन में पत्नी और पुत्र की मृत्यु का वियोग भी झेलना पड़ा था पर उन्होंने अपने योगक्षेम का पूरा भार अपने इष्ट श्रीकृष्ण पर डाल दिया था। जिस नागर समाज ने उन्हें बहिष्कृत किया था, अंत में उसी ने उन्हें अपना रत्न माना और आज भी गुजरात में उनकी वही मान्यता है।

(( रचनाएँ ))
नरसिंह मेहता ने बड़े मर्मस्पर्शी भजनों की रचना की। गांधीजी का प्रिय भजन ‘वैष्णव जन तो तेणे कहिये’ उन्हीं का रचा हुआ है। भक्ति, ज्ञान और वैराग्य के पदों के अतिरिक्त उनकी निम्न कृतियां प्रसिद्ध हैं―
‘सुदामा चरित’
‘गोविन्द गमन’
‘दानलीला’
‘चातुरियो’
‘सुरत संग्राम’
‘राससहस्र पदी’
‘श्रृंगार माला’
‘वंसतनापदो’ और
‘कृष्ण जन्मना पदो’

संतों के साथ बहुत-सी कथाएँ जुड़ी रहती हैं। नरसी मेहता के संबंध में भी ऐसी अनेक घटनाओं का वर्णन मिलता है। इनमें से कुछ का उल्लेख स्वयं उनके पदों में मिलने से लोग इन्हें यथार्थ घटनाएं भी मानते हैं। उन दिनों हुंडी का प्रचलन था। लोग पैदल-यात्रा में नकद धन नहीं ले जाते थे। किसी विश्वस्त और प्रसिद्ध व्यक्ति के पास रुपया जमा करके उससे दूसरे शहर के व्यक्ति के नाम हुंडी (धनादेश) लिखा लेते थे। नरसिंह मेहता की गरीबी का उपहास करने के लिए कुछ शरारती लोगों ने द्वारका जाने वाले तीर्थ यात्रियों से हुंडी लिखवा ली, पर जब यात्री द्वारका पहुँचे तो श्यामल शाह सेठ का रूप धारण करके श्रीकृष्ण ने नरसिंह की हुंडी का धन तीर्थयात्रियों को दे दिया।

नरसी जी निरन्‍तर भक्त-साधुओं के साथ रहकर श्रीकृष्‍ण और गोपियों की लीला के गीत गाते रहते थे। धीरे-धीरे भजन-कीर्तन में ही उनका अधिकांश समय बीतने लगा। यह बात उनके परिवार वालों को पसन्‍द नहीं थी। उन्‍होंने इन्‍हें बहुत समझाया, पर कोई लाभ न हुआ। एक दिन इनकी भौजाई ने ताना मारकर कहा कि ‘ऐसी भक्ति उमड़ी है तो भगवान से मिलकर क्‍यों नहीं आते?’ इस ताने ने नरसी पर जादू का काम किया। वे घर से उसी क्षण निकल पड़े और जूनागढ़ से कुछ दूर श्री महादेव जी के पुराने मंदिर में जाकर वहाँ श्री शंकर की उपासना करने लगे। कहते हैं, उनकी पूजा से प्रसन्‍न होकर भगवान शंकर उनके सामने प्रकट हुए और उन्‍हें भगवान श्रीकृष्‍ण के गोलोक में ले जाकर गोपियों की रासलीला का अदभुत दृश्‍य दिखलाया। वे गोलोक की लीला को देखकर मुग्‍ध हो गये।

तपस्‍या पूरी कर वे घर आये और अपने बाल-बच्‍चों के साथ अलग रहने लगे। परंतु केवल भजन-कीर्तन में लगे रहने के कारण बड़े कष्‍ट के साथ उनकी गृहस्‍थी का काम चलता। स्‍त्री ने कोई काम करने के लिये उन्‍हें बहुत कहा, परंतु नरसी जी ने कोई दूसरा काम करना पसंद नहीं किया। उनका दृढ़ विश्‍वास था कि श्रीकृष्‍ण मेरे सारे दुःख और अभावों को अपने-आप दूर करेंगे। हुआ भी ऐसा ही। कहते हैं, उनकी पुत्री के विवाह में जितने रुपये और अन्‍य सामग्रियों की जरूरत पड़ी, सब भगवान ने उनके यहाँ पहुँचायी और स्‍वयं मण्‍डप में उपस्थित होकर सारे कार्य सम्‍पन्‍न किये। इसी तरह पुत्र का विवाह भी भगवत्‍कृपा से सम्‍पन्‍न हो गया।

कहते हैं नरसी मेहता की जाति के लोग उन्‍हें बहुत तंग किया करते थे। एक बार उन लोगों ने कहा कि अपने पिता का श्राद्ध करके सारी जाति को भोजन कराओ। नरसी जी ने अपने भगवान को स्‍मरण किया और उनके लिये सारा सामान जुट गया। श्राद्ध के दिन अन्‍त में नरसी जी को मालूम हुआ कि कुछ घी घट गया है। वे एक बर्तन लेकर बाजार घी लाने के लिये गये। रास्‍ते में उन्‍होंने एक संत मण्‍डली को बड़े प्रेम से हरि कीर्तन करते देखा। बस, नरसी जी उसमें शामिल हो गये और अपना काम भूल गये। घर में ब्राह्मण भोजन हो रहा था, उनकी पत्‍नी बड़ी उत्‍सुकता से उनकी बाट देख रही थीं। भक्तवत्‍सल भगवान नरसी का रूप धारण कर घी लेकर घर पहुंच गए। ब्राह्मण-भोजन का कार्य सुचारु रूप से पूरा हुआ। बहुत देर बाद कीर्तन बंद होने पर नरसी जी घी लेकर वापस आये और अपनी पत्‍नी से देर के लिये क्षमा माँगने लगे। स्‍त्री आश्‍चर्य सागर में डूब गयीं।
पुत्र-पुत्री का विवाह हो जाने पर नरसी जी बहुत कुछ निश्चिन्‍त हो गये और अधिक उत्‍साह से भजन-कीर्तन करने लगे। कुछ वर्षों बाद एक-एक करके इनकी स्‍त्री और पुत्र का देहान्‍त हो गया। तब से वे एकदम विरक्त-से हो गये और लोगों को भगवद्भक्ति का उपदेश देने लगे। वे कहा करते- ‘भक्ति तथा प्राणिमात्र के साथ विशुद्ध प्रेम करने से सबको मुक्ति मिल सकती है।’

कहते हैं कि एक बार जूनागढ़ के राव माण्‍डळीक ने उन्‍हें बुलाकर कहा- ‘यदि तुम सच्‍चे भक्त हो तो मन्दिर में जाकर मूर्ति के गले में फूलों का हार पहनाओ और फिर भगवान की मूर्ति से प्रार्थना करो कि वे स्‍वयं तुम्‍हारे पास आकर वह माला तुम्‍हारे गले में डाल दें अन्‍यथा तुम्‍हें प्राणदण्ड मिलेगा।’ नरसी जी ने रातभर मन्दिर में बैठकर भगवान का गुणगान किया। दूसरे दिन सबेरे सबके सामने मूर्ति ने अपने स्‍थान से उठकर नरसी जी को माला पहना दी। नरसी की भक्ति का प्रकाश सर्वत्र फैल गया पर कहते हैं कि इसी पाप से राव माण्‍डळीक का राज्‍य नष्‍ट हो गया।
नरसी मेहता का निधन 1480 ई. में माना जाता है।

(( जय श्री राधेकृष्ण🙏🏻 ))

1 Like · 466 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.

You may also like these posts

वर्ण पिरामिड
वर्ण पिरामिड
Neelam Sharma
4404.*पूर्णिका*
4404.*पूर्णिका*
Dr.Khedu Bharti
धूल के फूल
धूल के फूल
तारकेश्‍वर प्रसाद तरुण
होली
होली
ओमप्रकाश भारती *ओम्*
गीत
गीत
Rambali Mishra
ऐसे लोगो को महान बनने में देरी नही लगती जो किसी के नकारात्मक
ऐसे लोगो को महान बनने में देरी नही लगती जो किसी के नकारात्मक
Rj Anand Prajapati
नालिश भी कर नहीं सकता 
नालिश भी कर नहीं सकता 
Atul "Krishn"
वेदना
वेदना
AJAY AMITABH SUMAN
बदरी
बदरी
Suryakant Dwivedi
इंसानियत खो गई
इंसानियत खो गई
Pratibha Pandey
मेरी अम्मा
मेरी अम्मा
Sarla Sarla Singh "Snigdha "
सियासी खाल
सियासी खाल
RAMESH SHARMA
"पारदर्शिता की अवहेलना"
DrLakshman Jha Parimal
इतना आसान होता
इतना आसान होता
हिमांशु Kulshrestha
जिंदगी वही जिया है जीता है,जिसको जिद्द है ,जिसमे जिंदादिली ह
जिंदगी वही जिया है जीता है,जिसको जिद्द है ,जिसमे जिंदादिली ह
पूर्वार्थ
शरीर और आत्मा
शरीर और आत्मा
डा. सूर्यनारायण पाण्डेय
"दुम"
Dr. Kishan tandon kranti
*राम स्वयं राष्ट्र हैं*
*राम स्वयं राष्ट्र हैं*
Sanjay ' शून्य'
एक डॉक्टर की अंतर्वेदना
एक डॉक्टर की अंतर्वेदना
Dr Mukesh 'Aseemit'
उठो भवानी
उठो भवानी
उमा झा
ग़ज़ल सगीर
ग़ज़ल सगीर
डॉ सगीर अहमद सिद्दीकी Dr SAGHEER AHMAD
ओस बूंद का राज
ओस बूंद का राज
संतोष बरमैया जय
*अभिनंदन के लिए बुलाया, है तो जाना ही होगा (हिंदी गजल/ गीतिक
*अभिनंदन के लिए बुलाया, है तो जाना ही होगा (हिंदी गजल/ गीतिक
Ravi Prakash
हाइकु - डी के निवातिया
हाइकु - डी के निवातिया
डी. के. निवातिया
” ये आसमां बुलाती है “
” ये आसमां बुलाती है “
ज्योति
ग़ज़ल
ग़ज़ल
Jai Prakash Srivastav
कड़वा बोलने वालो से सहद नहीं बिकता
कड़वा बोलने वालो से सहद नहीं बिकता
Ranjeet kumar patre
लघुकथा-
लघुकथा- "कैंसर" डॉ तबस्सुम जहां
Dr Tabassum Jahan
तेरे बिन
तेरे बिन
Saraswati Bajpai
हिंदी कब से झेल रही है
हिंदी कब से झेल रही है
Umesh उमेश शुक्ल Shukla
Loading...