संघर्ष
संघर्ष जीवन में निरंतर विद्यमान रहता है ,
जो विभिन्न रूपों में प्रभावित करता रहता है ,
कभी खुद अपने शरीर एवं मनस से ,
कभी अपने दृष्टिकोण एवं मान्यताओं से ,
कभी अपने आत्मज्ञान एवं आस्था से ,
कभी अपनी व्यावहारिकता एवं नीति निर्देश से,
कभी अपनी सत्यनिष्ठा एवं प्रतिपादित असत्य से,
कभी अपने सिद्धांत एवं सामाजिक मूल्यों से ,
कभी अपने आत्मसम्मान एवं अपमान से ,
कभी अपने अस्तित्व एवं दमन से ,
कभी अपनी प्रज्ञाशक्ति एवं परामर्श से ,
कभी अपनी अंतर्भावनाओं एवं व्यक्तिगत संबंध से ,
कभी अपनी कर्तव्यपरायणता एवं भावनात्मक
शोषण से ,
कभी अपनी निर्भीकता एवं अन्तर्भय से,
कभी अपनी सहनशीलता एवं स्फुरित विद्रोह भाव से ,
कभी अपने आत्मविश्वास एवं टूटते मनोबल से ,
कभी अपने सद्भाव एवं दुर्विचार से ,
कभी अपनी आसक्ति एवं विरक्ति से ,
कभी अपनी आकांक्षाओं एवं निराशाओं से,
कभी अपने कृत्य एवं अपराध बोध से,
कभी अपने निष्कर्ष एवं आत्म निर्णय से ,
कभी अपनी भौतिक संतुष्टि एवं आत्म शांति से,
जीवन के आयामों का संघर्ष चक्र सतत्
चलता रहता है ,
जिसमें उलझा मानव सुख-दुःख भोगने
बाध्य रहता है।