संघर्षी वृक्ष
कुछ संवर गया, कुछ उजड़ गया
ये तेरी उम्र थी, ये तेरा हिस्सा था
टूट कर तुझसे बिछड़ गया
हवा आयी थी तूफा और झोंका बनकर
मैंने देखा तूने कोशिश की, या मनमानी की
तू थोड़ा संभला और थोड़ा फिसल गया ।
खैर तू अब भी अपने काम का है
साथी अपने शाम का है
हम झूलेगे, हम खेलेगे
की फलसफा तू बचपन के आराम का है।
तुम्हें सबकी खिल खिलाहट सुनाई तो देती होगी
भूल हुई तूफा वाले मंजर से, प्रकृति सफाई तो देती होगी
तू नवजीवन ले, फिर से पन्पेगा
प्रकृति के अँगना में विशाल हो कर तनेगा
अगली बार तू खुद आंधी बन जाना
झुमना, गाना शोर मचाना।
तेरे ठंडक में हम भी झुलेगे
तू साथी है, ये कभी ना भुलेगे।।।
विक्रम कुमार सोनी के कलम से।