संगत का प्रभाव
संगत का प्रभाव
जब अन्दर का कोलाहल चरम पर हो तब बाहर का कोलाहल निष्प्रभावी हो ही जाता है।
गोधूली का अवसान और रजनी का प्रथम पहर , झींगुर की आवाज और जब तब मेढक का टर्र-टर्र.कभी झमाझम बारीश और कभी हल्की फुहा फुही सावन- भादों मास का एहसास. उस दिन वर्षा की बौछार की गति के साथ झींगुरों और मेढकों की आवाज का तेज और मद्धिम पड़ना एक अजीब सा दृश्य उपस्थित कर रहा था. वहीं वर्षा का बड़ा- बड़ा जल बूंद टप-टप की आवाज से धरती पर गिर रहा था मानो धरती के शरीर पर गोदना गोद रहा हो. जहाँ-तहां जमे पानी पर पड़ते जल बूँद से बड़े-बड़े बुलबुला का बनना और बुलबुला का विलीन हो जाना इस बात को इंगित कर रहा था कि अभी वर्षा रुकनेवाली नहीं है, अभी और होगी.समुद्र के जल सतह पर भी बड़े-बड़े बूंद गिरकर रत्नाकर जल राशि को समृद्ध कर रहा था और बतला रहा था कि यही जीवन चक्र है- बनना, विचरना और फिर उसी में समाहित हो जाना.
अन्धेरा अपना साम्राज्य कमोवेश फैलाना चाह रहा था लेकिन स्थानीय प्रशासन द्वारा रौशनी की कृत्रिम व्यवस्था उसकी कोशिश को नाकाम कर रहा था. समुचित कृत्रिम व्यवस्था हो भी क्यों नहीं. भारत वर्ष का एक नामी गिरामी पर्यटक स्थल जो ठहरा.भारत भूमि के सुदूर दक्षिणी क्षेत्र, कन्याकुमारी का समुद्री तट.
समुद्र तट से सटे छिछले पानी में अवस्थित छोटे बड़े चट्टान पर समुद्र से उठती ऊँची-ऊँची लहर बार- बार अपना कहर बरपा रही थी. रात अंधेरिया थी, चन्द्रमा का प्रकाश लेशमात्र भी न था. हाँ, उडगन का थोड़ा बहुत प्रकाश धरती को मिल रही थी लेकिन वहां अत्यधिक प्रकाश की उपस्थिति इसका भी एहसास नहीं होने दे रही थी, कन्या कुमारी के समुद्र तट पर प्रकाश की समुचित व्यवस्था रात्रि के अन्धकार पर भारी पड़ रहा था.किनारे से कुछ दूरी पर पानी में अवस्थित अनेकों विशालकाय चट्टानों पर रह-रहकर समुद्र-लहर आता,चट्टान से टकराकर लहर-जलराशि असंख्य बूंदों में परिणत हो जाती और प्रकाश के सहयोग से मोतियों की तरह चमकीले हो जाते. केवल उस चट्टान से ही नहीं बल्कि रत्नाकर तट पर अवस्थित छोटे-छोटे सभी चट्टानों यह क्रिया कलाप चल रहा था..
बारीश की बड़ी-बड़ी बूँदें समुद्र जल पर पडकर मानो कह रहा हो तुझसे ही मैं निकला था और तुम्ही मे समा रहा हूं – त्व दीयं गोविन्दम वस्तु त्वमेव ही समर्पये. समुद्र जल अपने बिछुडे जलकण को गर्म जोशी से आत्मसात कर रहा था- स्वगातुम.
और इस भारी हलचल के बीच एक युवक मायूस बैठा था एक मंडपाकार छत के नीचे उस समुद्र तट पर. शिला बेंच पर एकांत में जाकर. बहुत सारे लोग थे वहां फिरभी वह युवक वहां अकेला था.चुपचाप सम्मुख समुद्र सतह पर पड़ते बड़े-बड़े बूंदों को गिरते देखकर और उन बूंदों को समुद्र द्वारा आलिंगन करते देख अनायास उसके मन मस्तिष्क में एक विचार उगने लगा था – निर्जीवों मे इतना अपनापन और सजीवों मे इतना दुराव ! आखिर क्यों?
वह युवक निहार रहा था पश्चिम में अरब सागर से उठनेवाले ऊँचे-ऊँचे लहरों को, दक्षिण मे हिंद महासागर के सतह पर पानी के बेतरतीब बौछार को और पूरब मे बंगाल की खाडी के अनंत और अपार जल राशि में उठनेवाले ज्वार को, लहर को, हलचल को,धरती जल और आकाश जल के मिलन को, चट्टानों से टकराकर अस्तित्व विहीन होते जल तरंग को.
उस युवक के अन्दर की दुनिया में भी आंधी थी,तूफ़ान था, हलचल था,उपद्रव था.तीन महासागरों के जल जहां मिलते हैं उसी मिलन स्थल पर बैठकर वह युवक खोज रहा था अपने अन्दर उठे तूफ़ान का कोई निदान, कोई रास्ता, कोई समाधान, वह खुद खुदको समझाता था, बुझाता था, तसल्ली देता था-यह जीवन तनावयुक्त है, यह जिंदगी सनकी भी है,यह जिंदगी अस्त-व्यस्त भी है फिरभी जिंदगी तो जिंदगी है. क्या सागर मे हलचल नहीं होती ? क्या महासागर मे सुनामी नहीं उठता ? क्या समुद्र हलचल से परे है ? तो फिर जिंदगी मे हलचल है, तो है. सुनामी है, तो है.
जिस तरह रत्नाकर भविष्य के गर्भ मे पल रहे सुनामी का परवाह नहीं करता,धरती ज्वालामुखी फूटने की परवाह नहीं करता, मेहंदी चोट खाने से नहीं डरता, सोने आग में तपने से नहीं डरता, जंगल में जानवर असुरक्षित विचरण करने से नहीं डरता, पशु घूमता है निर्भीक और निडर होकर अरण्य में.सारे हिंसक जानवरों की परवाह कियर बगैर, भविष्य की चिंता किये बगैर. तो हम क्यों भविष्य के लिए परेशान हों?.सागर की तरह धीरता और गंभीरता धारण कर जिंदगी की संघर्षों से क्यों न लड़े, वर्तमान को क्यों न सँवारे? क्यों न भविष्य को भविष्य ही रहने दे ? भविष्य तो वर्त्तमान बनकर ही आएगा न. आएगा तो देखा जाएगा.जीवन भी तो नदी और समुद्र में बहनेवाली एक अविरल धारा के समान ही है न?
तभी अनायास उसकी नजर बायीं ओर अवस्थित विवेकानंद रौक की ओर उठी.सोचने की दिशा बदली,ढाढस बंधा- एक वह भी युवक था जो निर्जन समुद्र में छलांग लगाकर उस चट्टान तक पहुंचता है और वहां जाकर भविष्य के भारत का चिंतन करता है, बिना किसी डर के, बिना किसी अनहोनी की चिंता किये और एक मैं, छोटी सी परेशानी से परेशान हूँ, हैरान हूँ, नहीं, इसका हल खोजना होगा.जिन्दगी-जलधि में गोंता लगाकर मोती खोजना होगा. पश्चिम दिशा के अरब सागर मे अवस्थित लाईट पोस्ट की ओर वह युवक एकटक देखता रहा, निहारता रहा. सहसा उसे गोपाल दास “ नीरज” की कुछ पंक्तियाँ याद आयी-
“मैं तूफानों मे चलने का आदी हूँ.
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो.
हैं फूल रोकते कांटे मुझे चलाते,
मरुस्थल, पहाड़ चलने की चाह बढाते.
तुम पथ के कण- कण को तूफ़ान करो,
तुम मत मेरी मंजील आसान करो.”
तभी अचानक उसके कंधे पर एक हाथ का स्पर्श हुआ, वह चौंक गया पीछे मुड़कर देखा.- आलोक नाथ था. “तुम ! तुम यहाँ कैसे ? वह भी रात के वक्त !” आश्चर्य जताते हुए अभय रंजन ने पूछा.
यहाँ मेरी ड्यूटी लगी है।” बहुत शांत भाव से मुस्कराते हुए आलोकनाथ ने कहा।
“ड्यूटी? कैसी ड्यूटी?” अभय रंजन ने जिज्ञासा भरी नजरों से देखते हुए पूछा।
“तुम इतना हैरान क्यों हो रहे हो? क्या मैं कन्याकुमारी की धरती पर नहीं आ सकता? मैं काफी देर से तुम्हें यहाँ देख रहा था। पहले तो मुझे तुम्हारे न होने का शक हुआ, लेकिन काफी जाँच-पड़ताल के बाद मुझे यकीन हो गया कि तुम ही अभय रंजन हो। इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है, मैं यहाँ इंडियन कोस्ट गार्ड में असिस्टेंट कमांडेंट हूँ, और मेरा निवास भी यहीं पास में है। अभी तुम्हें वहाँ ले चलता हूँ।”
“बहुत बढ़िया, बधाई हो।” अभय रंजन ने गर्मजोशी से खड़े होकर हाथ मिलाते हुए कहा।
“धन्यवाद! अब ये बताओ, तुम यहाँ कैसे?” आलोकनाथ ने हाथ मिलाते हुए पूछा।
“पहले यह तो बताओ कि आई.सी.जी. क्या होता है?”
“इंडियन कोस्ट गार्ड। इसके पदाधिकारियों की भर्ती और तैनाती यूपीएससी के द्वारा की जाती है।”
“तुम्हारे बारे में जानकर बहुत अच्छा लगा।”
“मुझे भी तुम्हें यहाँ देखकर बहुत खुशी हो रही है।”
“चलो, और हालचाल बताओ।” अभय रंजन ने कहा।
“सब ठीक है, और हालचाल की बातें होती रहेंगी। अभी मेरे साथ चलो।” आलोकनाथ ने हाथ खींचते हुए कहा।
“नहीं आलोक, अभी नहीं जा सकता।”
“क्यों?”
“क्योंकि मैं यहाँ अकेला नहीं हूँ। मेरे साथ मेरी माँ, पत्नी और दो बच्चे भी आए हैं।
“अरे, तब तो और भी अच्छा होगा! आंटी, भाभी, और बच्चों से मिलकर मुझे बहुत अच्छा लगेगा।”
“अभी कहाँ ठहरे हो?” आलोक ने पूछा।
“सन पार्क होटल में, दूसरी मंजिल पर, रूम नंबर 205-206 में,” अभय ने उत्तर दिया।
“अच्छा, वो तो ठीक है। पहले यह बताओ, अभी क्या कर रहे हो?”
“मैं फिलहाल मध्य प्रदेश सरकार में सहायक इंजीनियर हूँ। मेरी पोस्टिंग अभी विदिशा में है।”
“बहुत बढ़िया! कभी तुम्हारे यहाँ विदिशा आऊँगा। लेकिन अभी चलो, उठो, आंटी, भाभी, और बच्चों को लेकर आते हैं।”
“आज नहीं दोस्त, इस अजीब समय पर जाकर घरवालों को क्यों परेशान करेंगे?” अभय ने असमर्थता जताई।
“ठीक है, अभी मेरी भी ड्यूटी है। कल सुबह होटल में मिलता हूँ। सभी को अपने निवास पर लेकर आऊँगा, और वहीं कुछ दिन हम साथ मिलकर एंजॉय करेंगे। ढेर सारी बातें करेंगे। तुम्हें तुम्हारी भाभी से भी मिलवाऊँगा, तुम्हारी भाभी बहुत अच्छी है। मिलोगे तो बहुत खुश हो जाओगे।” आलोक ने अपना विजिटिंग कार्ड देते हुए कहा, “किसी भी समय, किसी भी काम के लिए मुझे यहाँ कॉल कर लेना। इस कार्ड में मेरे निवास का पता भी दिया हुआ है।”
अभय ने कार्ड लिया और आलोक को विदा किया। उसके जाते ही अभय सोच में डूब गया, “कितना भाग्यशाली है आलोक! भाभी का नाम लेते हुए उसकी खुशी उसके चेहरे पर झलक रही थी। और एक मैं हूँ, अभागा, बदनसीब।”
आलोक के ओझल होते ही अभय रंजन विचारों के सागर में डूबते हुए होटल की ओर बढ़ा। रास्ते भर वह सोचता रहा, “अगर कल आलोक आया और रूबी ने उससे कुछ अनाप-शनाप बोल दिया, कुछ उल्टा-सीधा कर दिया, तब तो मेरी सारी इज्जत मिट्टी में मिल जाएगी। घर के झगड़े और मन-मुटाव मिटाने के लिए टूर पर आया था, लेकिन यहाँ भी वह अपनी आदतों से बाज नहीं आ रही है। अब मैं क्या करूँ, कैसे उसे समझाऊँ? उसे प्रेम का एहसास कैसे दिलाऊँ?”
इन विचारों में डूबा हुआ अभय कब समुद्र तट से सन पार्क होटल पहुँच गया, उसे पता ही नहीं चला। उसने कमरे का कॉल बेल बजाया। दरवाजा माँ ने खोला। अभय ने अंदर घुसते ही इधर-उधर नजर दौड़ाई। बच्चे चुपचाप पलंग पर बैठे थे, माँ भी दरवाजा खोलने के बाद उनके पास जाकर बैठ गई थी। लेकिन रूबी कहीं नजर नहीं आ रही थी। अभय ने कुर्सी पर बैठते हुए माँ से पूछा, “माँ, रूबी कहाँ है?”
“तुम्हारे जाने के तुरन्त बाद वह भी बिना कुछ कहे-सुने निकल गई थी। मैंने सोचा कि तुमने ही उसे बुलाया होगा,” माँ ने जवाब दिया।
अभय को ऐसा लगा मानो उसके पैरों तले से जमीन खिसक गई हो। “कहाँ चली गई? उसने कुछ गलत तो नहीं कर लिया?” वह कुर्सी से उठा और दरवाजा खोलकर बाहर देखने लगा। उसने दूर-दूर तक नजरें दौड़ाई, लेकिन रूबी का कोई अता-पता नहीं था। वह वापस कमरे में आया और दरवाजा बंद कर दिया। सोफे पर बैठकर सोचने लगा, “अब क्या किया जाए?”
कुछ ही पलों बाद दरवाजे की घंटी बजी। अभय ने दरवाजा खोला और सामने रूबी को देखकर राहत की सांस ली। न तो रूबी ने कुछ कहा, न ही अभय ने। रूबी चुपचाप अंदर आई और बच्चों को गोद में लेकर बैठ गई। उसकी आँखों से आंसू की दो बूँदें ढलकीं, जिन्हें उसने अपने आँचल से पोंछ लिया। उसने एक लंबी साँस ली और अपने पैरों को समेटते हुए लेट गई, चेहरे पर उदासी छाई हुई थी।
“कहाँ गई थी?” अभय ने चुप्पी तोड़ने के लिए प्यार से पूछा, लेकिन रूबी ने कोई जवाब नहीं दिया।
“मैं पूछ रहा हूँ, आप कहाँ गई थीं?” अभय ने दोबारा पूछा।
“जहाँ आप गए थे, वहीं,” रूबी ने धीरे से उत्तर दिया।
“मैंने तुम्हें देखा नहीं।”
“मैंने आपको देखा था,” रूबी ने कहा।
“मुझे टोका क्यों नहीं?”
“क्योंकि आपका पुराना मित्र वहाँ था,” रूबी ने संक्षेप में जवाब दिया।
“आह! तुम उसे पहचानती हो?”
“हाँ, आपके जन्मदिन के समारोह में मैंने उन्हें देखा था।”
“अच्छा, एक बात ध्यान से सुनो,” अभय ने सावधानी से कहा, “कल वह होटल में आएगा। कोई उल्टा-सीधा काम मत करना।”
“अगर तुमने मुझे ऐसा करने के लिए मजबूर न किया तो। अगर तुमने फिर कुछ उल्टा-पुल्टा किया, तो मैं भी चुप नहीं रहूँगी। सारा मान-सम्मान उतार कर रख दूँगी,” रूबी ने दृढ़ता से कहा।
माँ और बच्चे चुपचाप बैठे रहे। बच्चों की आँखों में डर था, दादी भी सहमी हुई थी। डर था कि कहीं अभय और रूबी का वार्तालाप फिर से किसी बड़े विवाद में न बदल जाए। लेकिन भगवान का शुक्र था कि वैसा नहीं हुआ।
अचानक दरवाजे की घंटी बजी। अभय ने दरवाजा खोला, सामने वेटर खड़ा था, “खाना, सर।”
“उधर रख दो।”
वेटर खाना रखकर चला गया। सबने चुपचाप खाना खाया। अभय और रूबी 205 नंबर रूम में चले गए, जबकि दादी और बच्चे 206 नंबर रूम में सोने चले गए।
रात में अभय और रूबी के बीच कोई बातचीत नहीं हुई। अभय रात भर करवटें बदलता रहा, नींद उसकी आँखों से कोसों दूर थी। चिंता में डूबे मनुष्य के साथ अक्सर ऐसा ही होता है। दूसरी ओर, रूबी बिना किसी चिंता के घोड़ा बेचकर सो रही थी। उसकी नाक से आ रही खर्राटों की आवाज ने अभय को यकीन दिला दिया कि रूबी गहरी नींद में है। अभय बार-बार उसे जगाकर कहना चाहता था, “चलो, जो हुआ सो हुआ। अब गुस्सा छोड़ दो। कल जब आलोक आए, तो उसके सामने कुछ ऐसा न करना जिससे मेरी इज्जत खराब हो जाए।” लेकिन उसकी हिम्मत नहीं हुई। अंततः उसने चादर से मुँह ढककर सोने की कोशिश की। न जाने कब उसकी आँख लग गई।
अगली सुबह, अभय ने चादर से मुँह निकालकर खिड़की की ओर देखा – सूरज निकल चुका था। उसने मोबाइल उठाया, जो अपनी रोशनी से जगमगा उठा। समय हो रहा था सुबह के 7:30 बजे। रूबी पहले ही उठ चुकी थी और तरोताजा हो चुकी थी। अभय ने उठकर वाशरूम का रुख किया।
इस बीच, दरवाजे की घंटी फिर से बजी, “किर्र, किर्र।”
रूबी ने दरवाजा खोला। सामने वही युवक खड़ा था जिसे उसने कल शाम अभय के साथ देखा था। उसके साथ एक महिला भी थी। रूबी को थोड़ी असहजता महसूस हो रही थी क्योंकि वह अभी भी रात्रि परिधान में थी।
“कहिए, क्या बात है?” उसकी आवाज में उत्सुकता झलक रही थी।
“नमस्ते, इसमें अभय रंजन रहते हैं?”
“हाँ, परंतु आप कौन हैं?” रूबी ने सवाल किया।
“मैं आलोक नाथ, उसका पुराना मित्र हूँ। मैं उससे मिलने आया हूँ। आप मुझे पहचाना नहीं?”
रूबी ने असमंजस का दिखावा करते हुए कहा, “थोड़ा-थोड़ा जाना-पहचाना चेहरा लग रहा है। आप उनके किसी बर्थडे में थे क्या?”
“हाँ, एक बार उसके बर्थडे पर आया था। मैं वही हूँ,” आलोक ने मुस्कराते हुए जवाब दिया।
“नमस्ते, आइए, अंदर आइए। आप भी आइए, बहनजी,” रूबी ने आलोक के साथ आई महिला को भी बुलाया। आलोक ने बिना किसी हिचकिचाहट के कहा, “यह मेरी धर्मपत्नी शीला हैं।”
रूबी ने मुस्कुराते हुए कहा, “आपके साथ देखकर समझ गई थी कि यह आपकी पत्नी ही होंगी।”
“लेकिन अभय कहाँ हैं?” आलोक ने एक बार फिर पूछा।
“वाशरूम में हैं,” रूबी ने जवाब दिया। फिर वह शीला के साथ होटल के बिस्तर पर बैठ गई और आलोक पास की कुर्सी पर बैठ गया। शीला से रूबी तुरंत ही घुल-मिल गई। शायद यह उसकी नारीत्व के प्रति जागी हुई सम्मान की भावना थी, या शायद यह स्वयं को अच्छा साबित करने का एक प्रयास था। रूबी, जो कई दिनों से एक छोटी सी बात पर गुस्सा करके बैठी थी, उस दिन अचानक बदल गई। अभय और रूबी के बीच की दूरी को पाटने की कोशिश में अभय ने कन्याकुमारी और रामेश्वरम घूमने का प्लान बनाया था, लेकिन अब तक उसे वह सफलता नहीं मिली थी जिसकी उसे उम्मीद थी।
अचानक, अभय वाशरूम से बाहर आया। उसने बाहर निकलते ही जो नजारा देखा, उससे उसे बड़ी राहत मिली। उसने मजाकिया अंदाज में कहा, “गुड मॉर्निंग, भाभीजी और भैया जी!”
“गुड मॉर्निंग, लेकिन आंटी और बच्चे कहाँ हैं?” आलोक ने पूछा।
“दूसरे कमरे में हैं, अभी बुलाकर लाता हूँ,” अभय ने कहा।
जैसे ही अभय की माँ अपने पोता-पोती के साथ अंदर आईं, आलोक और शीला ने उनके पैर छूकर आशीर्वाद लिया। अभय ने तब तक चाय का ऑर्डर कर दिया था।
“मेरे माता-पिता आप सब से मिलने के लिए बहुत उत्सुक हैं, आंटी जी। उन्होंने जोर देकर कहा है कि जब तक आप कन्याकुमारी में रहेंगे, हमारे बंगले में ही रहें,” आलोक ने कहा।
अभय की माँ ने कहा, “आपके माता-पिता बड़े नेकदिल इंसान हैं। मैं उनसे अवश्य मिलना चाहूँगी।”
आलोक ने मुस्कुराते हुए कहा, “आंटी जी, कृपया मुझे भी आप ही कहिए, जैसे अभय को कहती हैं। मुझे अच्छा लगेगा। और जल्दी कीजिए, वहाँ नाश्ता तैयार होगा, ठंडा हो जाएगा।”
चाय पीने के बाद सभी लोग आलोक के साथ उसके घर की ओर चल दिए। जब वे उसके घर के करीब पहुंचे, तो उन्होंने देखा कि वह एक बड़ा सा बंगला था, जिसकी चारों ओर बाउंड्री थी और बगीचे में छोटे-छोटे फूलों के पौधे लगे थे। बंगले के मुख्य द्वार पर आलोक के माता-पिता उनका स्वागत करने के लिए खड़े थे।
रूबी और शीला किचन में चली गईं। वहीं, आलोक, अभय और उनके माता-पिता बातचीत करने लगे। बच्चों के चेहरों पर भी खुशी की चमक थी।
आलोक की रात की ड्यूटी थी और शीला एक स्कूल में शिक्षिका थी। दोनों के बीच गहरा प्यार था, और उनके रिश्ते में अद्भुत सामंजस्य था। उनका आपसी सम्मान और परिवार के प्रति समर्पण देखकर रूबी ने अपने आप से सवाल किया।
शीला ने सबको नाश्ता करवाया और फिर स्कूल जाने की तैयारी करने लगी। उसने अपने सास-ससुर को समय पर दवा लेने की सलाह दी और जल्दी लौटने का वादा किया। “आप सबको छोड़कर जाने का मन नहीं है, लेकिन मुझे जाना होगा। जल्दी लौटने की कोशिश करूंगी,” इतना कहकर वह ड्यूटी पर चली गई।
रूबी, जो शीला की लगन और परिवार के प्रति समर्पण को देख रही थी, मन ही मन अपने आप को कोसने लगी।
शीला के स्कूल जाने के बाद अभय और आलोक बातचीत में व्यस्त हो गए। अभय की माँ और आलोक के माता-पिता भी आपस में घुल-मिल गए। बच्चे भी आपस में खेलने लगे।
शीला ने स्कूल से जल्दी आने की अनुमति ली और घर लौट आई। रूबी ने उसे देखकर राहत महसूस की, क्योंकि अब वह शीला के साथ खुलकर बात कर सकती थी। शीला ने सभी के लिए चाय बनाई और फिर खुद आराम करने चली गई। रूबी भी उसके साथ चली गई।
शीला के साथ थोड़ी देर बिताने के बाद, रूबी घर के बाहर निकल गई। वह एकांत में बैठकर सोचने लगी – “शीला नौकरी करते हुए भी अपने सास-ससुर की सेवा कर सकती है। मेरी दिनचर्या तो इतनी व्यस्त भी नहीं है, फिर भी मैं अपने पति और सास की सेवा क्यों नहीं कर सकती? अभय ने उस दिन केवल अपनी माँ की बात मानी थी, इसके लिए उससे झगड़ना कितना गलत था। मैंने ही बात को बढ़ाया था। अभय ने तो कभी मुझसे बेरुखी नहीं की, फिर भी मैं नाराज रही।”
रूबी को एहसास हुआ कि वह बिना वजह अभय और उसकी माँ से नाराज रही। उसने सोचा, “शीला ने अपने घर को स्वर्ग बना रखा है और मैं… मैं ही गलत थी। वो दोनों दिल से बुरे नहीं हैं।”
इस आत्ममंथन के बाद, रूबी ने अपने व्यवहार को बदलने का निर्णय लिया।
वह वहाँ से उठी और मन ही मन प्रण किया, “चाहे कुछ भी हो, मैं उनसे माफी माँग लूँगी। अपने प्रेम का वास्ता देकर, अपनी गलती मानकर, अगर फिर भी वे न मानें तो मैं उनके पैर पकड़ लूँगी। चाहे जो भी हो, मैं उन्हें मनाकर ही दम लूँगी।”
रूबी दृढ़ निश्चय के साथ उठी और सीधे घर के अंदर चली गई। उसने अभय को इशारे से बाहर आने के लिए बुलाया। अभय के मन में थोड़ी आशंका हुई, लेकिन रूबी के चेहरे को देखकर उसे लगा कि इस बार उसकी आँखों में क्रोध नहीं था। कुछ क्षणों की हलचल के बाद, अभय बाहर आया। रूबी उसे अपने साथ बंगले के पीछे, एकांत में ले गई और बोली, “यहाँ आकर मैंने बहुत कुछ सीखा है, देखा है, और समझा है। मैं आज तक किए गए अपने व्यवहार के लिए माफी चाहती हूँ और माँ से भी अपने किए की माफी माँग लूँगी। अब मैं वादा करती हूँ कि कभी आक्रामक नहीं होऊँगी, और आपको भी इस संकल्प में मेरा साथ देना होगा।”
रूबी के इस अप्रत्याशित और अनपेक्षित व्यवहार से अभय रंजन भावविभोर हो गया। उसने कहा, “मैं वादा करता हूँ कि जितना मुझसे बन पड़ेगा, मैं तुम्हारे साथ खड़ा रहूँगा।” यह कहकर अभय ने रूबी को अपने गले से लगा लिया। रूबी भी अश्रुपूरित नयनों से अभय से लिपट गई। अभय भी इस भावुक क्षण में अपने आँसुओं को रोक नहीं पाया। दोनों ने अपने-अपने दिल की मलिनता को पश्चाताप के अश्रुजल से धो दिया।
अनंत आकाश की ओर देखते हुए अभय बोला, “हे परवरदिगार! आज आपने मेरे जीवन में जो शांति और प्रसन्नता दी है, उसके लिए आपका लाख-लाख शुक्रिया! कोटिशः नमन! कोटिशः वंदन!”
यह दृश्य वहाँ की वनस्पतियों को भी शायद बहुत भा गया। वहाँ खड़े पेड़-पौधे भी इस प्रेम और मेल-मिलाप के साक्षी बन गए। हवा न जाने कहाँ से बहने लगी, और पेड़-पौधे भी खुशी में झूमने लगे।
दोनों मुस्कराते हुए घर में वापस आए। अभय ने धीरे से अपनी माँ को बुलाकर कहा, “माँ, रूबी को अब हमारे प्रेम का एहसास हो गया है। उसने खुद यह कहा है।”
रूबी बीच में बात काटते हुए बोली, “हाँ, माँजी, आपने ठीक ही कहा था कि एक दिन जब मुझे सच्चे प्रेम का एहसास होगा, तब सब समझ में आ जाएगा, और आज वह समय आ ही गया।”
अभय और उसकी माँ एक-दूसरे की ओर देखते हुए मुस्कराए, मानो कुछ इशारों में कह रहे हों कि यह सब परमपिता परमेश्वर की असीम कृपा और इस पावन स्थान का प्रतिफल है।
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