संक्रमण का खण्डचक्र !
दिव्य सनातन पूर्ण पुरातन
सभ्यता का दर्पण !
यह कैसा पुनरावर्तन –
विपदा का नर्तन !
पृथ्वी पानी पवन प्रकाश ;
सब दूषित कलुषित आकाश !
स्वारथ में परमारथ लूटे ; आहत प्राण अकारथ छूटे ।
नदी नाले पर्वत मिट्टी रेत पठार ;
अतिक्रमित, संस्कृति कर रही चित्कार !
सभ्यता अतिक्रमित , आहत हो कर रही पुकार;
कुसंस्कारों के कालखंड में “को-रोना” कैसा प्रसार !
वृक्ष लता गुल्म कुसुम कुम्हलाये , पड़े दीखे सूखे म्लान ;
प्रकृति के विरुद्ध मानव खड़ा , आज विनाश का विकसित भान ।
कुछ नहीं बस यही रहा भयावहता द्रष्टव्य है:-
“को-रोना” का विनाश उपाय – प्राकृतिक संघट्य है।
विश्व वैभव संपदा का शुचिता ही सार है :
फैला विस्तृत सुस्थापित काल का आधार है।
सचेत रहें प्रकृति प्रति , जीवन का जय-जय होना ;
नहीं कहीं टिकेगा तनिक भी संक्रमणकारी ” कोरोना ” ।
आलोक पाण्डेय
( वाराणसी , भारतभूमि )