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23 Jan 2024 · 1 min read

आदमी

कमरे में कैद होकर
तड़प रहा है आदमी।
आंगन में झलकती धूप
आमंत्रित करती है उसे।
समेट लो आकर अब
अपने आंचल में मुझे।
कमरे की खिड़की से
तक रहा है आदमी।
नभ में कुलांचे भारते
मृग-शावक से बादल।
सम्मोहित कर कहते
तोड़ दे बंधन पागल।
मन-द्वार लगा ताला
बिलख रहा है आदमी।
वृक्षों की फुनगी पर
पखेरू कलरव करते।
अपनी मृदु वाणी से
रस जीवन में भरते।
दृढ़ता से होठ भींचे
मिट रहा है आदमी।
संकरी औ’ तंग दुनियाॅं में
फंसकर क्यूं रोता है।
सांकल से जिंदगी बांधे
व्यर्थ ही बोझा ढोता है।
गीली लकड़ी-सा रह-रह
सुलग रहा है आदमी।

—प्रतिभा आर्य
चेतन एनक्लेव,
अलवर(राजस्थान)

Language: Hindi
2 Likes · 331 Views
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