संकट और तरबूज़
तरबूज़ से हम;
संकटों के चाकुओं से
लोहा लेते बार बार..
परिस्थितियों की अलग-अलग
धारों से लहूलुहान होते,
बार बार
प्रजातीय सोच के उसी
नक़्शे कदम पर कि,
तरबूज़ चाकू पर
या चाकू तरबूज़ पर गिरे
नुकसान सिर्फ तरबूज़ का हैं.
– नीरज चौहान