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27 Jan 2024 · 1 min read

सिलसिला रात का

सिलसिला रात का यूं ही चलता रहा।
मैं आखिरी चिराग था ,जलता रहा।

कोलाहल सन्नाटों का ,चीरता खामोशी
इक आखिरी अश्क,आंख में पलता रहा।

सर्द आहों के धुंए में, दम मेरा घुटता रहा
गरम सांसों से बदन,पिघलता रहा।

जिसके जाने से ,थम गई मेरी जिंदगी
एक मौसम बन लेकिन,वो बदलता रहा।

चांदनी के साये की उम्मीद थी जिससे
उम्र भर वो सूरज,आग ही उगलता रहा।

सुरिंदर कौर

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