श्वासों का होम
नित्य होम श्वासों का करता हूँ
नित्य ही जीता नित्य ही मरता हूँ
सूनी आँखों में स्वप्न सँजोए हैं,
बगिया में थोड़े पौधे बोए हैं
विकसित होंवें ये फूलें और फलें,
श्रम से इनमें स्पंदन भरता हूँ
इन जगमग करती सड़कों के पीछे,
कुछ अँधियारी बस्ती भी पसरी हैं
उस अंधकार में जलते दीपों का,
कोटि कोटि अभिनंदन करता हूँ
खत्म हो चुके सारे संवेदन,
गीध सदृश नोचें नारी का तन
कब तक मानस में रावण पनपेंगे,
सोच सोच कर क्रंदन करता हूँ
पीर बड़ी है आहत है तन मन,
पीड़ा में आनंद ढूँढता मन
प्रसव वेदना सहकर दे जीवन,
उन माताओं का वंदन करता हूँ
मृत्यु भले आती हो आ जाये,
ये शरीर मिटता हो मिट जाये,
काया तो माटी में ही मिलनी है,
मैं इस माटी का चंदन धरता हूॅं।
कृष्ण भले ही श्याम वर्ण है तन,
लेकिन कलुष रहित है मेरा मन
स्वाभिमान ही है मेरी पूँजी,
पुरुषारथ का अभिनंदन करता हूँ
नित्य होम श्वासों का करता हूँ
नित्य ही जीता नित्य ही मरता हूँ
श्रीकृष्ण शुक्ल, मुरादाबाद
9456641400