श्रृंगारपरक दोहे
नदिया सा हो ले रहा,यौवन जहाँ उफान।
बोलो फिर कैसे वहाँ ,उपजे नहीं गुमान।।
आई अल्हड़ उम्र तो,खिले अंग ज्यों फूल।
तन्वंगी को भार सम ,लगने लगा दुकूल।।
पाकर पिय के प्यार की,संदल सदृश सुगंध।
सखि उन्मीलित नयन के ,टूट गए अनुबंध।।
अंतर्मन जब भी करे , सुधियों से संवाद।
बढ़ जाता है तब स्वयं,धड़कन का अनुनाद।।
देह बाँकपन देखकर ,जो सह लेता पीर।
उसको तो शर शूल क्या,व्यर्थ लगे शमशीर।।
स्वेद बिंदु विधु -वदन पर ,शोभा रहे बढ़ाय।
अति अद्भुत लावण्य हर,मन में हर्ष जगाय।।
आए दिल में बस गए,बनकर खासमखास।
फिर भी दूरी का सदा, होता है अहसास।।
पायल के घुँघरू बजे,जब गोरी के पाँव।
हरा-भरा-सा हो गया,मन का सूना गाँव।।
डाॅ बिपिन पाण्डेय