श्री गीता अध्याय पंद्रह
बोले श्री भगवान –
संसार रूप पीपल के पत्ते वेद कहे जाते हैं ।
आदि पुरुष परमेश्वर मूल, ब्रह्मा मुख्य शाखा कहे जाते हैं।।
ऐसे ही संसार वृक्ष को मूल सहित तत्व से जान ले जो भी।
अर्थ सहित जानता और समझता वही जन वेद को भी।।
इस संसार वृक्ष की विषय भोग रूप त्रिगुण रूपी जल से सिंचित।
कोंपल युक्त,देव,मनुष्य,त्रियक योनि रूप शाखाएं उपस्थित सर्वत्र। ।।
कर्मानुकूल अहंकार, ममता ,वासना रूप जड़े व्याप्त यत्र- तत्र।।
संसार रूपी वृक्ष का स्वरूप कहा जो जाता है जैसा।
यद्यपि है यथार्थ में वह पाया नहीं जाता कहीं वैसा।।
आदि ना अंत ना है ,अच्छी प्रकार की स्थिति इसकी।
ममता और वासना दृढ़ जड़ संसार रूप पीपल की।।
इसीलिए हे पार्थ! जरूरत वैराग्य रूप शस्त्र की।
काट सके जो मोह, वासना ,जड़ जग रूप पीपल की।।
तत्पश्चात परम रूप परमेश्वर खोजना चाहिए।
संसार सागर के आवागमन से मुक्ति गर चाहिए ।।
जिसकी कृपा माया से यह संसार पाया विस्तार।
शरण उसी नारायण से ही, होगा जीवन निस्तार।।
आसक्ति को जीता जिसने, मान मोह को मारा।
कामनाओं की मुक्ति से नारायण का मिले सहारा।।
सुख-दुख द्वंद मिटे जिस जन के,समझो मिला किनारा।
पा लेते ऐसे ज्ञानी मनुष्य ,परमपिता का पद न्यारा।।
जिसे प्राप्त कर न लौटे जग में,परम प्रकाश मिले उन्हें ऐसा।
जो न सूर्य,चंद्र,अग्नि आदि से उज्जवल हो,परम पद ऐसा।।
देह में स्थित जो जीवात्मा है,वह है अंग मेरा ही।
प्रकृति में स्थित मन पंचेंद्रियां, आकर्षित करें वही।।
जैसे वायु गंध स्थान से ज्यों, गंध लेकर उड़ जाती।
वैसे ही जीवात्मा इंद्रियों सहित, नव शरीर है पाती।।
नाक,कान,रस, त्वचा,नेत्र, सहारा मन का लेकर ।
विषयों का सेवन करे जीवात्मा, आश्रित इनके होकर।।
हैं जो शरीर छोड़कर जाने वाले या उसमें ही स्थित रहने वाले।
केवल विवेकशील ज्ञानरूप नेत्रों वाले ही हैं तत्व जानने वाले।।
हृदय स्थित आत्मा को जानें, योगी जन प्रयत्न करें जो। अंतःकरण अशुद्ध जिनके,नहीं जानते चाहे यत्न करें वो।।
जो तेज उपस्थिति सूर्य,चंद्र,अग्नि में ,जान मेरा ही तेज। सब ओर अवस्थित जो इस जग में,मेरे द्वारा गया सहेज।।
मैं ही धारण करता सब भूतों को प्रवेश धरा में करके ।
सभी औषधि करूं पुष्ट,वनस्पतियां अमृतमय चंद्रमा से।।
प्राण-अपान सभी में संयुक्त वैश्वानर अग्नि रूप होकर।
भक्ष्य,भोज्य,लेह,चौस्य पचाता मैं ही ,अर्जुन अन्न अनंतर।।
हूँ उपस्थित हर प्राणी में, अन्तर्यामी होकर के निरन्तर।
मैं ही रहता स्मृति, ज्ञान,मेधा, प्रज्ञा समाधान बनकर।।
जानने योग्य सभी सभी वेदों से, मैं ही हूँ सत्य हे अर्जुन!
कर्ता भी, ज्ञाता भी मैं , वेदों को समझ ,सुन और गुन।।
दो प्रकार के पुरुष हैं जग में नाशवान और अविनाशी।
नाशवान है शरीर सभी का,ये जीवात्मा है अविनाशी।।
इन दोनों में पुरुषोत्तम तो अन्य हुआ करते हैं।
तीनों लोकों के धारण- भरण करता को ही।
हे पार्थ! सभी जन जग में परमेश्वर कहते हैं।।
नाशवान जड़ वर्ग, क्षेत्र से, सर्वथा परे मैं भारत!
उत्तम हूँ मैं अविनाशी जीवात्मा से लोकों में ।
इसीलिए वेदों में, मुझे पुरुषोत्तम कहते हैं।।
ज्ञानी जन तो मुझे जानते, पुरुषोत्तम के नाम से ।
ऐसे वे सर्वज्ञ पुरुष, प्रीति कर जुड़ते मुझ वासुदेव से।।
हे अर्जुन! निष्पाप कहा शास्त्र रहस्यमई, गोपनीय तुझ से।
होते कृतार्थ जान तत्व से, ज्ञानवान रखें प्रीति जो मुझसे।।
इति पन्द्रहवां अध्याय
मीरा परिहार 💐✍️