श्री गीता अध्याय द्वितीय
अश्रु भरे व्याकुल नयन, हृदय देख व्यग्र अर्जुन का। निवारणार्थ शोकातिरेक, कृष्ण बोले वचन नीति का।।
इस असमय किस हेतु पार्थ, तू मोह को प्राप्त हुआ है।
है नहीं श्रेष्ठ जनों को श्रेष्ठ यह, ऐसा शास्त्रों में कहा है।।
इसीलिए हे पार्थ! नहीं है उत्तम यह वीरों और शूरों को।
दे त्याग हृदय की दुर्वलता, तू अब तान धनुष तीरों को।।
पूछूं मैं हे मधुसूदन ! तात और भ्रात से कैसे युद्ध करूंगा।
हैं गुरु, पितामह पूजनीय,कैसे, किस विधि विरोध करूंगा।।
इससे बेहतर तो मैं, भिक्षा का अन्न ग्रहण कर लूंगा।
क्या मैं गुरुजनों के रुधिर सने अर्थ,काम सुख भोगूंगा।।
नहीं जानता मधुसूदन ! श्रेष्ठ युद्ध है या अयुद्ध मम हित में।
वे जीतेंगे हमें हे केशव ! या फिर हम जीतेंगे उन्हें समर में।।
जिन्हें मारकर मैं जीना भी नहीं चाहता हूँ, हे मधुसूदन !
खड़े वही सुत, तात, भ्रात, युद्ध का करते गर्जन,तर्जन।।
इसीलिए स्वभाव मम हे केशव ! कायरता है जागी।
पूछ रहा हूँ राह, शिष्य मैं ,मुझे बता करो बड़भागी।।
जिनके प्राण गये और जिनके हैं ,जीवन क्षण शेष।
बोले केशव….
शोक नहीं करते उनके हित, बुद्धिमान,विशिष्ट विशेष।।
न तो यह कि मैं पहले न था और ये राजा लोग नहीं थे।
कि आगे अब न रहेंगे,सब थे पहले भी, आगे भी रहेंगे।।
देह में ज्यों तीनों पन होते हैं, त्यों ही अन्य शरीर होते हैं।
छोड़ विषय,दे त्याग माया को,धीर नहीं विचलित होते हैं।।
हैं अनित्य संयोग विषय के, सुख-दुख को तू सहन कर ।
तत्वज्ञानी पुरुषों ने दिया जो,ज्ञान हे पार्थ ! ग्रहण कर।।
ना ही है असत की सत्ता, नहीं अभाव भी सत्य का।
नाश रहित जग सृष्टा में, नहीं विनाश पार्थ ! है ईश्वर का ।।
आत्मा न तो मरती है और न ही यह मारी जा सकती है।
ना ही उत्पन्न होकर फिर पुनः यह बारम्बार जन्मती है।।
यह है अजन्म, अनित्य, सनातन और पुरातन हे पार्थ !
जो होती नहीं नाश,नाश तो होता है केवल तन यथार्थ।।
वस्त्र पुराने त्याग ज्यों, नवीन वस्त्रों को धारण करते हैं।
त्यों शरीर कर त्याग जीवात्मा ,नव देह ग्रहण करते हैं।।
अस्त्र काट न सकते जिसको,अग्नि जला नहीं है पाती।
गला न पाता जिसको जल,न वायु जिसे सुखा है पाती।।
समझ रहा तू जिसे सदा जन्मने ,मरने वाली।
तो भी हे महाबाहो!
मृत्यु सुनिश्चित है सबकी, यह नहीं है टलने वाली।।
धर्म तेरा यह कहता ,भय करने योग्य नहीं तू।
धर्म युद्ध बेहतर है तुझको ,राह न दूजी देखूं।।
खोकर तू सम्मान,स्व कीर्ति ,पाप को ही पाएगा।
मरण समान अपकीर्ति तेरी,समय सदा दोहराएगा।।
बैरी तेरे तुझसे तब , नहीं कहने योग्य वचन कहेंगे।
लोग भावना बिना देखे तेरी, सामर्थ्य को कोसेंगे।।
सम्मानित था पहले जिनमें,अब अपमानित वे करेंगे।
भयवश हटा युद्ध से तू,समझ प्रताड़ित तुझे वे करेंगे।।
स्वर्ग मिलेगा तुझको अर्जुन, यदि धर्म हेतु मारा जाता।
भोगेगा सब सुख धरती पर,संग्राम जीत यदि जो जाता।।
समझ समान हार-जीत और लाभ-हानि को तजकर।
हो जा तू तैयार धर्म हित ,युद्ध अधर्म से कर लड़कर।।
सुबुद्धिजन पाप पुण्य तज ,मुक्ति मार्ग नहीं हैं खोते ।
विचलित बुद्धि त्याग समर्पित ,स्थिर परमात्मा में होते।।
बोले अर्जुन, हे केशव ! स्थिर बुद्धि के क्या लक्षण हैं।
क्या बोलूं,क्या करूँ,मुझे अब करना ये विश्लेषण है।।
बोले भगवन ! कामनाओं को त्याग, सभी श्रेष्ठ जन।
आत्मा से आत्मा में संतुष्ट, स्थितिप्रज्ञ सा होता मन।।
दुख में न उद्वेग जिन्हें, नहीं सुख में होता हर्षातिरेक।
नष्ट होंय भय ,राग, क्रोध,सब जाग जाता बुद्धि विवेक।।
ज्यों समेट कच्छप अंगों को, निश्चिंत हुआ करता है।
त्यों मनुष्य हटकर विषयों से स्थितिप्रज्ञ हुआ करता है।।
विषयों के चिंतन से आसक्ति, विषयों ही में होती है।
आसक्ति से कामनाएं, सब विषय प्रवर्त्तक होती हैं।।
कामनाओं में विघ्नों से क्रोध यहाँ होता है धनंजय !
क्रोध हुआ तो मूढ़ भाव ही होता निश्चित अभ्युदय।।
मूढ़ भाव होने पर हो जाता है,स्मृति भ्रम अतिशय।
स्मृति भ्रम होने से , ज्ञान नाश हो जाता जन्मेजय।।
ज्ञान हुआ यदि नाश, गिराता मानव को नीचे और नीचे।
अभ्युदय होते पाप,श्रेष्ठ जन गिरते नीचे अंखियां मींचे।।
रहते हैं आसक्त, भोग,विलास, ऐश्वर्याधीन जो जन।
उन ज्ञानी जन में नहीं है, निश्चयात्मक बुद्धि अर्जुन।।
जिन्हें न प्राप्त स्वर्ग से बढ़कर कोई वस्तु या धन।
ऐसी सुखमय भ्रमित वाणी से भ्रमित वेद विज्ञानी जन।।
वेद प्रतिपादित तीनों गुण करें मोक्ष और उनका हित साधन।
पर तू रख स्वाधीन सोच,पा अप्राप्य चढ़ अनासक्ति वाहन।।
परिपूर्ण जलाशय पाकर क्या कोई गढ्डा खोद नहाता।
वहीं प्रयोजन ज्ञानी का ,समस्त वेदों में भी रह जाता।।
है अधिकार कर्म में केवल,फल में तनिक नहीं हो।
और न आसक्ति केवल कर्म को, न करने में ही हो।।
तज आसक्ति सम बुद्धि रख, सिद्धि असिद्धि दोनों में।
कर्तव्य कर्म को करें मनुज सब,योग है इसी समत्व में।।
सकाम कर्म करने वालों की, श्रेणी होती अति निम्न।
फल के हेतुक दीन होते हैं, बुद्धि योग के अति भिन्न।।
अर्जुन बोले,से केशव !
लक्षण क्या होते, परमात्मा प्राप्त,स्थिर बुद्धि पुरुष के।
चलें ,बोल, बैठता कैसे ,गुण क्या होते उन मानुष के।।
बोले भगवन…!
मुक्त किया हो कामनाओं से, भली-भांति मन जिसने।
निस्पृह हुआ सुक्ख -दुक्खों से, उद्वेग न देए पनपने।।
ज्यों हर लेती नाव नदी, पार्थ ! वायु चले जब जल में।
त्यों हर लेती बुद्धि , इंद्रियां नहीं रहे हैं जिसके वश में।।
नाशवान सुख की चाहत में,प्राणी सब जगते हैं।
ज्ञान स्वरूप तत्व रात्रि में,योगी मुझको भजते हैं।।
ज्यों परिपूर्ण अचल समुद्र सब नदी समा लेता है।
त्यों स्थितिप्रज्ञ सब योग समा,परम शांति पा लेता है।।
यही स्थिति होती है, ब्रह्म को प्राप्त पुरुष की।
बुद्धि होती योगी सी , ब्रह्मानंद प्राप्त मनुष्य की।।
मीरा परिहार…