श्रीमद्भगवद्गीता का सार
श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण के उद्बोधन वाक्य हैं जो की अर्जुन के लिए कहे गए थे। गीता में समस्त भारतीय संस्कृति और चिन्तन का सार समाविष्ट है। गीता में मोहग्रस्त जीवों के जागरण का मार्ग है। गीता समस्त संसार के लिए पथ भी है, पाथेय भी, पथदर्शक भी है और पथ का गंतव्य भी। यह ग्रंथ वैज्ञानिक दृष्टि से भी उत्तम ग्रंथ माना जाता है।इसमें जीवन के व्यावहारिक पक्ष से जुड़ी हुई बातें विस्तार से लिखी हुई हैं। यह ग्रंथ अमरता का अभिलेख माना जाता है। इस ग्रंथ से जुड़ी घटनाएं व उत्कृष्ट विचार एवं चेतना हम भारतीयों के रोम-रोम में विद्यमान है। यह ग्रंथ हमारी संस्कृति का आधार माना जाता है।श्रीमद्भगवद्गीता श्रीकृष्ण जी की दिव्यवाणी से रचित ग्रंथ है। गीता वर्ण, जाति, रंग- भेद, ऊँच- नीच,सम्प्रदाय, लिंग इत्यादि के बंधन से मुक्त ग्रंथ है।श्रीकृष्ण जी ने गीता में अत्यधिक प्रभावित करने वाली और अत्यन्त महत्वपूर्ण व गहरी बातें कही है जो की मानव जीवन के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण सिद्ध हुई हैं। गीता में श्रीकृष्ण ने विस्तार से आत्मा, परमात्मा, त्याग, परोपकार,, परहित, कर्म , कर्म फल इत्यादि का वर्णन किया है। और ये ज्ञान उच्चकोटि का ज्ञान है जिसके भाव अत्यन्त गहरे हैं।गीता स्वयं कर्म संहिता है। गीता में नियत, निषिद्ध कर्म, कर्म अथवा अकर्म की भी विवेचना है।
शास्त्र, यज्ञ, दान, तप आदि कर्म मनुष्य के लिए अवश्यक है और ऐसे विचार व कर्म मनुष्य को पवित्र करते हैं। धन समृद्धि की कामना से किये गए सभी कर्म काम्यकर्म कहलाते हैं। चोरी, झूठ, छल- कपट, हिंसा आदि स्वार्थ के लिए किये जाने वाले निषिद्ध कर्म होते हैं। बाहर से मन को वश में करने का दिखावा करने वाले किन्तु अन्दर से दूषित कामनाएँ पालने वाले सभी व्यक्ति दम्भी होते हैं। गीता में लिखा है कि कर्म त्यागने से कर्म करना सदैव श्रेष्ठ होता है। संसार चक्र संचालन के लिए ईश्वर को भी कार्य करना पड़ता है। कर्म में फलासक्ति से काम, क्रोध, मोह, लोभ इत्यादि विकार मन में रहने लगते हैं। फलेच्छा का त्याग करना ही वास्तव में निष्काम कर्म है।गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है कि- फल के बिना निष्काम कर्म ही उचित कर्म है। बिना फल की इच्छा के अपने कर्तव्य का पालन करना है ये ही मनुष्य का परम कर्तव्य है। दूसरों के हित के लिए करुणावान चित्त में होना ही श्रेष्ठ कर्म माना जाता है वे श्रेष्ठ कर्म हैं। एकीभाव से परमात्मा में चित्त का होना चाहिये जिससे मन में एक शान्ति का अनुभव व्याप्त रहे।
गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है कि मनुष्य का अपने माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी और संतान की सेवा करना सबसे प्रथम और परम कर्तव्य है और ये ही उसका कर्म है। अपने परिवार का पालन -पोषण उसका धर्म होता है। उसके कर्तव्य मात्र यहीं तक नहीं है, अपितु मनुष्य होने के नाते उसका ये कर्तव्य भी होता है कि अपने आस पास के लोगों की उनकी विकट परिस्थितियों में सहायता करे और साथ ही साथ मनुष्य को अपने समाज के प्रति भी उत्तरदायी होना चाहिए। कलयुग में सम्पूर्ण विश्व में अनैतिकता, हिंसा, उग्रवाद इत्यादि का माहौल बना हुआ है और इसीलिए गीता का ज्ञान परमावश्यक है।वर्तमान युग में परहित की अपेक्षा स्वहित की भावना सभी के अंदर उपस्थित है। आज प्राणी सिर्फ़ स्वार्थ और लिप्सा में डूबा हुआ है और दूसरों का शोषण कर अपने स्वार्थ को सिद्ध करने में लगा हुआ है। मनुष्य विवेकशील भी है और संवेदनशील भी है इसीलिए सभी प्राणी को अपने अंदर के ईश्वर को स्वंम ढुंढ़ना होगा। मनुष्य को इसीलिए करुणा भाव को हमेशा समझना चाहिए और उसी तरह का व्यहवार दूसरों के साथ करना चाहिए। परहित ही वह आधार है, जो सबके ही सुख का कारण होता है। परहित दो शब्दों से मिलकर बना हैं – पर हित। पर का अर्थ है – अपनों से अतिरिक्त तथा हित का अर्थ है- भलाई। गीता में श्रीकृष्ण ने इसीलिए सत्कर्म और परहित का वर्णन किया है जिनसे हमारा कोई स्वार्थ नहीं है कभी-कभी हमें ऐसे लोगों के प्रति भी करूणा की भावना रखकर उनका हित करना चाहिए।ये ही वास्तव में मनुष्य का नैतिक जिम्मेदारी है और परम कर्तव्य है और इसको सहायता के रूप में जाना जाना जाता है। ये ही सद् कर्म कहलाता है इसी को मानवीयता कहते हैं और ये मानव का धर्म भी होता है।ये कर्म ही पुण्य कर्म कहलाते हैं। जब व्यक्ति अपने लाभ-हानि का ध्यान रखे बिना, दूसरे लोगों की भलाई करता है तो यही कर्म परहित कहलाता है।
परहित करने वाला व्यक्ति परोपकारी,न्यायप्रिय, संवेदनशील होता है। सभी प्रकार की इच्छाओं को त्यागकर दूसरों की सेवा करना ही सबसे श्रेष्ठ कर्म होता है। भारतीय संस्कृति में पाप और पुण्य, व्यवहार, चरित्र इत्यादि का बहुत महत्व होता है और इनका मानव जीवन के लिए जो महत्व है उसका उचित रूप से गीता में वर्णन किया गया है। प्राणी को अपने कार्यों को इस प्रकार करना चाहिए कि दूसरों को किसी प्रकार की हानि न हो गीता में इसका वर्णन अत्यधिक प्रभावित करने वाले भावों के साथ लिखा है। मनुष्य खुद की चिंता किए बिना जब मानव दूसरों की सेवा या सहायता करता है तो यह श्रेष्ठ कर्म परहित होता है।
इस सृष्टि में मानव एक ऐसा प्राणी है जिसमें विवेक का प्राधान्य अधिक होता है और इसके माध्यम से मनुष्य वैज्ञानिक और तकनीकी रूप से उन्नति करता है और मनुष्य का मात्र एक लक्ष्य बन जाता है -जीवन को सुखी बनाना किन्तु हमें अपने ज्ञान का विस्तार करना है हमें सिर्फ़ भौतिक सुखों तक ही सीमित रह जाते हैं, तो धीरे-धीरे स्वार्थ और ‘स्व’ की भावना बढ़ने से मनुष्य दूसरों के हित-अहित की चिंता किए बिना अपने ही सुख-साधनों को बढ़ाने में जुट जाता है जिसके कारण समाज के साधन-हीन वर्ग के व्यक्ति निरंतर शोषण में जीवन व्यतीत करते हैं। समाज में असंतुलन उत्पन्न होने और शोषण बढ़ने से अराजकता एवं अनैतिकता को बल मिलता है। मानव का सम्पूर्ण जीवन केवल लिप्सा और कामनाओं के जाल में घिर जाता है।जिसके कारण मानवता का पतन होता जाता है।लेकिन समाज में कुछ ऐसे भी प्राणी हैं जो कि निजी स्वार्थ से उठकर मानवता की भलाई में ही अपने जीवन को समर्पित कर देते हैं।गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है कि समस्त कामनाओं, फलेच्छाओं को त्याग देने वाला व्यक्ति संन्यासी होता है। कुछ निषिद्ध एवं काम्य कर्मों के त्याग को भी त्याग कहते हैं। नियत कर्म यज्ञ, दान, तप आदि सत्कार्य कर्म होते हैं। गीता में सामान्यतया वासना, अहंभाव के त्याग को प्रमुख त्याग के रूप में स्वीकार किया गया है। सत्कर्म, परम पुरुषार्थ, निःस्वार्थ सेवा आदि त्यागी व्यक्ति के जीवन में प्रेम, प्रसन्नता शान्ति एवं आनन्द भर देते हैं। मनुष्य को परमानन्द की अनुभूति के लिए गीता ज्ञान,कर्म, भक्ति अति आवश्यक है।
श्री कृष्ण आत्मा और परमात्मा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि सम्पूर्ण संसार में दृश्यमान सभी कुछ नाशवान है। जिसका जन्म होता है उसका एक दिन मरण भी अवश्य ही होगा इसीलिए शरीर प्रत्येक युग में जन्मता मरता रहता है। जो इस विषय का अद्भुत ज्ञान खुद में समाहित कर चुके हैं वे प्राणी शरीर के सम्बन्ध में मोह नहीं करते हैं। लेकिन शरीर में विद्यमान आत्मा अजन्मा,अविनाशी और नित्य है। वह कभी भी नष्ट नहीं होती है। कुछ मनुष्य शरीर और आत्मा में भेद-दृष्टि नहीं रख पाते हैं इसीलिए वो दुःख सुख के चक्र में फँस जाते हैं। इसी भ्रम के कारण वे सत्कर्म, और सद्धर्म से वन्चित भी रह जाते हैं लेकिन किसी भी स्थिति में किसी भी बात का प्रभाव आत्मा पर नहीं पड़ता है। जिसको इस परम ज्ञान की अनुभूति हो जाती है वो कर्तव्य मार्ग से विचलित नहीं होते हैं। उनकी बुद्धि स्थिर और अडिग रहती है और निश्चल बुद्धि से किये गये कर्म हमेशा उत्तम फल दायी होते हैं।
गीता में श्रीकृष्ण परमात्मा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि परमात्मा किसी से प्रकाशित नहीं होता अपितु सूर्य, चन्द्र नक्षत्रादि उसी के प्रकाश से प्रकाशित होते हैं।सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के कण-कण में परमात्मा विद्यमान है। संसार में जो भी सर्वोत्तम सर्वोत्कृष्ट हैं, वह परमात्मा-तत्व ही है। ब्रह्माण्ड में समस्त चीजें परमात्मा का ही रूप है। परमात्मा समस्त सृष्टि का कर्ता पोषक है। वह अति सूक्ष्म होने के कारण अविज्ञेय तथा अति विराट होने के कारण अप्रमेय है। वह अनंत है और उसका ज्ञान असीम है। कोई भी श्रद्धावान व्यक्ति जो भक्ति भाव श्रद्धा समर्पित कर भक्ति से भजता है, वह उस परमात्मा को प्राप्त कर सकता है।जो भी व्यक्ति अपने चित्त में उपस्थित द्वेष भाव के आवरण को हटा देता है उसे स्वंम ही परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है। शुद्ध चित्त से सम्पन्न व्यक्ति सहज ही परमात्म तत्व का अधिकारी बन जाता है।इस ग्रन्थ में जीवन जीने का सम्पूर्ण ज्ञान है।मनुष्य जीवन का उदेश्य इसमें स्पष्ट रूप में बताया गया है। गीता कृष्ण के मुख से निकली हुई वाणी का सार है और जीवन के प्रत्येक पड़ाव में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इसके प्रत्येक श्लोक में गहरे भाव समाहित हैं। सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच: गीता के इस श्लोक में श्रीकृष्ण कहते हैं कि अर्जुन सभी धर्मों को त्याग कर अर्थात हर आश्रय को त्याग कर केवल मेरी शरण में आओ, मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्ति दिला दूंगा। पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन: श्रीकृष्ण बताते हैं कि जो भी भक्त मेरे लिये प्रेम से पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्ध ह्दय से प्रेमपूर्वक अर्पण किये हुए पुष्पादि मैं सगुण रूप से प्रकट होकर ग्रहण करता हूँ।
वो आगे बताते हैं कि- यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च य: हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो य: स च मे प्रिय: इसका अभिप्राय यह जिससे किसी को कष्ट नहीं पहुँचता तथा जो अन्य किसी के द्वारा विचलित नहीं होता, जो सुख-दुख में, भय तथा चिन्ता में समभाव रहता है, वह मुझे अत्यन्त प्रिय है। कृष्ण जी आगे अपने बारे में वर्णन करते हुए कहते हैं कि परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम् धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे इसका अभिप्राय यह है कि सज्जन पुरुषों के कल्याण के लिए और दुष्कर्मियों के विनाश के लिए और धर्म की स्थापना के लिए मैं युगों-युगों से प्रत्येक युग में जन्म लेता आया हूं।
जब जब इस धरती पर धर्म का नाश होता है और अधर्म का विकास होता है, तब तब मैं धर्म की रक्षा करने और अधर्म का विनाश करने हेतु अवतार लेता हूँ।
इस समस्त संसार को धारण करने वाला, समस्त कर्मों का फल देने वाला, माता, पिता, ओंकार, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद भी मैं ही हूँ| इस समस्त संसार में प्राप्त होने योग्य, सबका पोषण कर्ता, समस्त जग का स्वामी, प्रत्युपकार की चाह किये बिना हित करने वाला, सबका वासस्थान, सबकी उत्पत्ति व प्रलय का का कारण, समस्त निधान और अविनाशी का कारण भी मैं ही हूँ| सूर्य का ताप मैं ही हूँ, मैं ही वर्षा को बरसाता हूँ, जीवन और मृत्यु भी मैं ही हूँ और सत्य और असत्य में भी मैं हूँ|
आगे युद्ध के बारे में अर्जुन को श्रीकृष्ण बताते हैं कि हतो वा प्राप्यसि स्वर्गम्, जित्वा वा भोक्ष्यसे महिम् तस्मात् उत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय: इसका अभिप्राय यह है कि यदि व्यक्ति युद्ध में वीरगति को प्राप्त होते हैं तो व्यक्ति को स्वर्ग मिलेगा और यदि विजयी होता है तो धरती के सुख को भोगेगा इसलिए वो अर्जुन को कहते हैं कि उठो पार्थ और निश्चय करके युद्ध करो।
धर्म के बारे में श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि- यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् इसका आशय यह है कि जब-जब धर्म का लोप होता है और अधर्म में वृद्धि होती है, तब-तब मैं धर्म के अभ्युत्थान के लिए मैं अवतार लेता हूं।
साधू और संत पुरुषों की रक्षा के लिये, दुष्कर्मियों के विनाश के लिये और धर्म की स्थापना हेतु मैं युगों युगों से धरती पर जन्म लेता आया हूँ|
कृष्ण अर्जुन को कर्म का सम्पूर्ण ज्ञान समझाते हैं कि कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि इसका मतलब है कि कर्म करना तुम्हारा दायित्व है निःस्वार्थ कर्म करो फल की चिंता मत करो । समय आने पर तुम्हे उसका परिणाम जरूर मिलेगा।
कर्म करना तुम्हारा अधिकार है लेकिन फल की इच्छा करना तुम्हारा अधिकार नहीं है| कर्म करो और फल की इच्छा मत करो अर्थात फल की इच्छा किये बिना कर्म करो।
क्रोध के बारे में श्रीकृष्ण बताते हैं कि ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते इसका अभिप्राय यह है कि
विषयों के बारे में सोचते रहने से मनुष्य को उनसे आसक्ति हो जाती है। इससे उनमें कामना पैदा होती है और कामनाओं में विघ्न आने से क्रोध की उत्पत्ति होती है।आगे क्रोध के बारे में बताते हुए वो समझाते हैं- क्रोधाद्भवति संमोह: संमोहात्स्मृतिविभ्रम:
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति अथार्थ
क्रोध से मनुष्य की मति मारी जाती है जिससे स्मृति भ्रमित हो जाती है स्मृति-भ्रम हो जाने से मनुष्य की बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि का नाश हो जाने पर मनुष्य खुद स्वंम नाश कर बैठता है इसिलिए उन्होंने गीता में क्रोध को नाशवान बताया है
क्रोध करने से मष्तिस्क कमजोर हो जाता है और याददाश्त पर पर्दा पड़ जाता है| इस तरह मनुष्य की बुद्धि का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश होने से स्वयं उस मनुष्य का भी नाश हो जाता है
इसिलिए क्रोध के त्याग के लिए उन्होंने वर्णन किया है। गीता के श्लोक में मनुष्य की जीवन की प्रत्येक समस्या का हल छिपा है। इसमें गहरे भाव समाहित हैं जो जीवन का सम्पूर्ण दर्शन कराते हैं। कर्म, धर्म, कर्मफल, जन्म, मृत्यु, सत्य, असत्य आदि जीवन से जुड़ी जानकारी इस ग्रंथ में समाहित हैं। गीता श्लोक श्री कृष्ण ने अर्जुन को उस समय सुनाये जब युद्ध के समय अर्जुन युद्ध करने से मना करते हैं तब कृष्ण अर्जुन को गीता श्लोक सुनाते हैं और कर्म व धर्म के सच्चे ज्ञान से अवगत कराते हैं। श्री कृष्ण के इन्हीं उपदेशों को भगवत गीता ग्रंथ में संकलित किया गया है।
युद्ध के समय जब अर्जुन के सामने उनके सम्बन्धी , गुरुजन खड़े होते हैं तो अर्जुन दुःखी होकर कृष्ण से कहते हैं कि अपने महान गुरुओं को मारकर जीने से तो अच्छा है कि मैं भीख मांगकर जीवन निर्वाह करूँ। आगे वह कहते हैं कि मुझे तो यह भी नहीं पता कि क्या उचित है और क्या नहीं। हम उनसे जीतना चाहते हैं या उनके द्वारा जीते जाना चाहते हैं| धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हम कभी जीना नहीं चाहेंगे फिर भी वह सब युद्धभूमि में हमारे सामने खड़े हैं| अर्जुन कृष्ण से कहते हैं कि मैं अपना धैर्य खोने लगा हूँ, मैं अपने कर्तव्यों को भूल रहा हूँ| अब आप मेरा मार्गदर्शन करें।क्या उचित है उससे मुझे अवगत करायें। अब मैं आपका शिष्य हूँ और आपकी शरण में आया हुआ हूँ| कृपया मुझे उपदेश दीजिये|
फिर श्रीकृष्ण गीता का सम्पूर्ण ज्ञान का वर्णन करते हुए अर्जुन को उच्चकोटि का असीम ज्ञान प्रदान करते हैं वह कहते हैं कि योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते इसका अभिप्राय यह है कि सफलता और असफलता की आसक्ति को त्यागकर सम्पूर्ण भाव से समभाव होकर अपने कर्म को करो| यही समता की भावना योग कहलाती है|
दुरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धञ्जय बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः
अथार्थ श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे पार्थ अपनी बुद्धि, योग और चैतन्य द्वारा निंदनीय कर्मों से दूर रहो और समभाव से ईश्वर की शरण में आ जाओ| जो व्यक्ति अपने सकर्मों के फल भोगने के अभिलाषी होते हैं वह लालची होते हैं|
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् – श्री कृष्ण कहते हैं कि ईश्वरभक्ति में स्वयं को लीन करके बड़े बड़े ऋषि खुद को इस भौतिक संसार के कर्म और फल के बंधनों से मुक्त कर लेते हैं| इस तरह उन्हें जीवन और मरण के बंधनो से भी मुक्ति मिल जाती है| इस प्रकार के मनुष्य ईश्वर के पास जाकर उस अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं जो समस्त दुःखों से परे है|
आगे श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्म और उसके ज्ञान से अवगत कराते हुए कहते हैं कि जब तुम्हारा मन कर्मों के फलों से प्रभावित हुए बिना और वेदों के ज्ञान से विचलित हुए बिना आत्मसाक्षात्कार की समाधि में स्थिर हो जायेगा तब तुम्हें दिव्य चेतना की प्राप्ति हो जायेगी| जब कोई भी मनुष्य समस्त इन्द्रियों की कामनाओं को त्यागकर उनपर विजय प्राप्त कर लेता है| तब उसे विशुद्ध दिव्य चेतना की प्राप्ति हो जाती है|
श्री कृष्ण आत्मा को अजर अमर बताते हुए कहते हैं कि नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः
इसका अभिप्राय यह है कि आत्मा अजर अमर है, इसे ना तो आग जला सकती है, और ना ही पानी भिगो सकता है, ना ही हवा इसे सुखा सकती है और ना ही कोई शस्त्र इसे काट सकता है| ये आत्मा अविनाशी है|
कृष्ण कर्म का ज्ञान देते हुए कहते हैं कि श्रेष्ठ मनुष्य जो कर्म करता है दूसरे व्यक्ति भी उसी का अनुसरण करते हैं इसीलिए जीवन में सत्कर्म निःस्वार्थ कार्य अति आवश्यक है।
आज के वर्तमान विश्व में ये श्लोक सत्य सिद्ध हुए हैं कृष्ण ने बहुत ही गहरे भाव अपने शब्दों में समाहित किये हैं। वो कहते हैं कि लगातार विषयों और कामनाओं के बारे में सोचते रहने से मनुष्य के मन में उनके प्रति लगाव पैदा हो जाता है| ये लगाव ही इच्छा को जन्म देता है और इच्छा क्रोध को जन्म देती है जो कि मनुष्य जाति के लिए विनाश का कारण बन सकती है।
श्रीकृष्ण जन्म के बारे में विवरण देते हुए अर्जुन से कहते हैं कि हमारा केवल यही एक जन्म नहीं है बल्कि पहले भी हमारे हजारों जन्म हो चुके हैं,
तुम्हारे भी और मेरे भी परन्तु मुझे सभी जन्मों का ज्ञान है, तुम्हें नहीं है| वो खुद के बारे में बताते हुए कहते हैं मैं एक अजन्मा तथा कभी नष्ट ना होने वाली आत्मा हूँ| इस समस्त संसार को मैं ही संचालित करता हूँ| इस समस्त सृष्टि का स्वामी मैं ही हूँ| गीता के चौथे अध्याय के छठे श्लोक में कृष्ण कहते हैं कि इस समस्त प्रकृति को अपने वश में करके यहाँ मौजूद समस्त जीवों को उनके कर्मों के अनुसार मैं बारम्बार रचता हूँ और जन्म देता हूँ|
आगे वे बताते हैं कि सत्व गुण, रजोगुण और तमोगुण, सारा संसार इन तीन गुणों पर ही मोहित रहता है| सभी इन गुणों की इच्छा करते हैं लेकिन मैं इन सभी गुणों से अलग और विकार रहित हूँ|
इन उपदेशों को सुनकर अर्जुन को सत्य ज्ञान की प्राप्ति हुई और उन्होंने कृष्ण के एक अलग रूप को देखा। गीता में 18 अध्याय है और 700 श्लोक हैं।
अर्जुन से भी पहले यह गीता का यह ज्ञान सूर्य देव को दिया गया था।गीता में जीवन से सम्बंधित संदेश दिये गये हैं जैसे- मनुष्य अपने विचारों से ऊंचाइयां को भी छू सकता है और खुद को गिरा भी सकता है। मनुष्य खुद के विश्वास के द्वारा ही खुद के सम्पूर्ण जीवन का निर्माण करता है क्युंकि व्यक्ति जैसा विश्वास रखता है वैसा बन जाता है। मनुष्य खाली हाथ आता है और खाली हाथ ही जाता है।
श्री कृष्ण ने गीता में बोला है परिवर्तन ही संसार का नियम है, जो हुआ अच्छे के लिए ही हुआ
जो हो रहा है वो भी अच्छे के लिए ही हो रहा है और जो होगा वो भी अच्छे के लिए ही होगा। ये उनके अति महत्वपूर्ण उपदेश थे।
अध्याय चार के श्लोक तैंतीस, चौंतीस और पैंतीस में श्रीकृष्ण गीता के ज्ञान दाता हुए अर्जुन से कहते हैं- पूर्ण परमात्मा के ज्ञान को जानने वाले उन संतों के पास जा उनको आदर के साथ प्रणाम कर प्रेमपूर्वक उस परमात्मा का मार्ग पूछ फिर वे संत पूर्ण परमात्मा को पाने की विधि बताएगें जिसको जान कर तू फिर इस प्रकार अज्ञान रूपी मोह को प्राप्त नहीं होगा।
गीता अध्याय आठ के श्लोक तैरह में कहा है कि मुझ ब्रह्म की साधना तो केवल ओम् है जो उच्चारण करके जाप करने का है।
अध्याय नौ के श्लोक तेईस, चौबीस में कहा है कि जो भी प्राणी अन्य किसी भी देवताओं को पूजते हैं वे भी मेरी ही पूजा कर रहे हैं। अध्याय सोलह के श्लोक तेईस और चौबीस में बताया गया है कि जो भी व्यक्ति विधि को त्याग कर मनमाना आचरण पूजा करते हैं वे न तो सुख को प्राप्त करते हैं और न ही मोक्ष को। अध्याय अट्ठारह के श्लोक 62 में कहा गया है कि हे अर्जुन तू पूर्ण भाव से उस ईश्वर की शरण में जा उसकी कृपा से ही परम शांति को प्राप्त तू प्राप्त करेगा।श्लोक 63 में कहा गया है कि मैंने तेरे को यह गीता का ज्ञान दिया है अब जैसे तेरा मन चाहे वैसा तू कर। यह गीता का अंतिम अध्याय था जिसमें श्री कृष्ण ने अर्जुन से ये बात बोली है।
श्रीकृष्ण के भक्त बनने के बारे में वैदिक शास्त्रों में अत्यन्त स्पष्ट रूप से लिखा है कि मानव जीवन का उद्देश्य भौतिक चेतना से ऊपर उठकर कृष्णभावनाभावित बनना है। अगर हम इसके विपरीत सिर्फ़ भौतिक गतिविधियों में फंस गए हैं, तो हम अपना जीवन बर्बाद कर रहे हैं। मनुष्य जो ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करता है वो धार्मिक कहलाता है और जो इसके विपरीत विचार रखता है वह अधार्मिक कहलाते हैं। सभी शास्त्रों का सार गीता में ही समाहित हैं। सर्वोपाधि-विनिर्मुक्तम
तत्-परत्वेन निर्मलम हृषीकेण हृषीकेश-सेवनम
भक्तिर उच्यते इसका अभिप्राय यह है कि जब कोई व्यक्ति संसार के मोह से मुक्त हो जाता है, तो वह शुद्ध हो जाता है और वह वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर लेता है। इसलिए आत्म-साक्षात्कार के मार्ग पर चलना सबसे अच्छा है, जो जीवन की शारीरिक अवधारणा से बिल्कुल दूर है।हमें अपने वास्तविक स्वरूप को जानना होगा और उन शारीरिक सुखों से परे जाना होगा। यह ज्ञान केवल वैदिक साहित्य से ही प्राप्त किया जा सकता है।
आत्मा का स्वरुप के बारे में ग्रंथों, उपनिषदों में पूर्णरूप से व्याख्या की हुई है। कुरुक्षेत्र में जब अर्जुन अपनों को देख कर मोहग्रस्त हो जाता है तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि यह सृष्टिचक्र निरन्तर चलता रहता है इसे रोका नहीं जा सकता है।श्रीकृष्ण आगे आत्मा का स्वरुप के बारे में विस्तापूर्वक वर्णन करते हैं सृष्टि नियमों के अनुसार चलती है। मनुष्य बच्चे के रूप में जन्म लेता है और फिर जवानी और वृद्धावस्था आने पर उस प्राणी का अन्त हो जाता हैै किन्तु केवल उसका शरीर मरता है उसकी आत्मा पुनः जन्म ले लेेती है किसी और रूप में। यह क्रम अनवरत चलता रहता है। यह आत्मा सदा अपने ही रूप में रहती है। उत्पन्न होना, अस्तित्व में आना, बदलना और नष्ट होना ये शरीर के की क्रिया हैं, आत्मा के नहीं। शरीर में आत्मा ही एक ऐसा तत्व है जो न तो किसी से उत्पन्न होता है और न ही नष्ट होता है। जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नये वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीर, को त्याग करके नए शरीर को प्राप्त करती है। जब तक शरीर में आत्मा हैं तभी तक शरीर क्रियाशील रहता है उसके बाद वह निष्क्रिय हो जाता है। आत्मा का निवास केवल शरीर में है।
श्रीमद्भगवतगीता में मनुष्य के जीवन से जुड़ी ज्ञान की बातें बताई गयी हैं जिनको मनुष्य अपने जीवन में ग्रहण करके क्रोध, ईर्ष्या, काम वासना, लालच इत्यादि बुराइयों से मुक्ति पा सकता है।
कृष्ण गीता में तीन आदतों को त्यागने की बात करते हैं-काम, क्रोध, लोभ। यह अधोगति में ले जाने वाले हैं भाव होते हैं। मनुष्यों को अपनी संपूर्ण इंद्रियों को वश में रखना चाहिए क्योंकि जिस प्राणी की इंद्रियां वश में होती हैं, उसकी ही बुद्धि स्थिर होती है और ऐसा व्यक्ति बुलंदी की ऊंचाइयों को छूता है।
और मैंने अपने जीवन में एक गीता की एक बात को ग्रहण किया है जो की उच्च जीवन के लिए अति आवश्यक है गीता ने मेरे जीवन में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।आज के वर्तमान युग में मनुष्य सिर्फ़ दिखावे के लिए पूजा पाठ करते है या अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए। ऐसे व्यक्ति के जीवन में गीता का ज्ञान अत्यन्त महत्वपूर्ण सिद्ध होगा।असल में धर्म का अर्थ होता है कर्तव्य। धर्म के नाम पर हम सिर्फ़ पूजा-पाठ, मंदिरों तक ही सीमित रह जाते हैं लेकिन प्राचीन काल में और हमारे ग्रंथों में कर्तव्य को ही धर्म का नाम दिया है। सिर्फ़ पूजा पाठ करने से हम ईश्वर की वास्तविकता को नहीं जान सकते जब तक की हमारे ह्दय में वो भाव न हो।
पृथ्वी पर जन्मे प्रत्येक प्राणी की इच्छा होती है कि उसे सुख प्राप्त हो लेकिन सुख का मूल तो उसके अपने मन में स्थित होता है। जिस मनुष्य का मन इंद्रियों में लिप्त होता है उसे सुख की प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती इसिलिए सुख प्राप्त करने के लिए मन पर नियंत्रण होना बहुत अति आवश्यक है।
श्रीकृष्ण कर्म के बारे में बताते है कि प्रत्येक मनुष्य को अपने धर्म के अनुसार कर्म करना चाहिए जैसे- विद्यार्थी का धर्म है विद्या प्राप्त करना। जिस व्यक्ति का जो कर्तव्य है उसे वो पूरा करना चाहिए। कोई भी मनुष्य कर्म किए बिना नहीं रह सकता। बुरे परिणामों के डर से अगर कोई व्यक्ति कर्म नहीं करता ये भी एक कर्म ही कहलाता है। जिसका परिणाम हमारी आर्थिक हानि, समय की हानि के रुप में मिलता है।
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् मम वत्र्मानुवर्तन्ते मनुष्या पार्थ सर्वश: इस श्लोक में श्रीकृष्ण कहते है कि जो मनुष्य मुझे जिस प्रकार से मेरा स्मरण करता है, मैं उसी के अनुरूप उसे फल प्रदान करता हूं। जो लोग मेरा स्मरण मोक्ष प्राप्ति के लिए करते हैं, मैं उन्हें मोक्ष प्रदान करता हूँ। जो किसी अन्य इच्छा से प्रभु का स्मरण करते हैं, उनकी वह इच्छाएं भी प्रभु कृपा से पूर्ण हो जाती है। कंस ने सदैव मुझे मृत्यु रूप में स्मरण किया। इसलिए उसे मृत्यु प्रदान की गयी।
वो गीता में जीवन की सत्यता को प्रकट करते हैं
वो कहते है कि न मनुष्य कुछ लेकर आया था और न ही यहां से कुछ लेकर जायेगा। इस जगत में प्राणी खाली हाथ आए और खाली हाथ ही चले गये। गीता में यह भी उपदेश दिया गया है कि मनुष्य को पहले खुद का आकलन करना चाहिए क्योंकि मनुष्य अपने आत्म-ज्ञान से अज्ञान को दूर कर सकता है।। जब तक मनुष्य खुद के बारे में नहीं जानेगा तब तक उसका उद्धार नहीं हो सकता। आज के वर्तमान समय में हमको ये बातें ग्रहण करनी चाहिए ताकि अपने जीवन का सार्थक बना सके। जो लोग पूरे विश्वास के साथ अपने लक्ष्य को पाने का प्रयास करते हैं।वह निश्चय ही अपने लक्ष्य को पा लेते हैं लेकिन मनुष्य को अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए लगातार चिंतन, मेहनत और प्रयास करते रहना चाहिए। उन्होंने जीवन में संतुलन बनाए रखना की बात कही है। मनुष्य को जरूरत से ज्यादा कोई भी चीज करने से बचना चाहिए और अपनी जिंदगी में संतुलन बनाकर रखना चाहिए।गीता के ये उपदेश एक सफल जीवन के निर्माण में अपनी अहम भूमिका निभाते हैं।
उनके उपदेश हमारे जीवन में अत्यधिक प्रासंगिक हैं। उन्होंने अर्जुन से कहा है कि क्यों व्यर्थ की चिंता करते हो। कोई आत्मा को नहीं मार सकता आत्मा ना पैदा होती है और न ही मरती है।मनुष्य खाली हाथ आए और खाली हाथ चले गए। जो आज तुम्हारा है, कल और किसी का था, परसों किसी और का होगा। तुम इसे अपना समझ कर मग्न हो रहे हो। बस यही प्रसन्नता तुम्हारे दु:खों का कारण है।न यह शरीर तुम्हारा है और न ही तुम शरीर के हो। यह अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, आकाश से बना है और इसी में मिल जायेगा।जीवन का एक सत्य है वो है- मृत्यु।
युद्ध भूमि में वो अर्जुन को उपदेश देते हैं कि एक ज्ञानवान व्यक्ति कभी भी कामुक सुख में आनंद नहीं लेता। कोई भी प्राणी जन्म से नहीं बल्कि अपने कर्मो से महान बनता है।जिस प्रकार अग्नि सोने की परख करती है ठीक उसी प्रकार संकट वीर पुरुषों की परख करता है। वो किस्मत के बारे में बताते हैं समय से पहले और भाग्य से अधिक कभी किसी को कुछ नही मिलता है।
यह सम्पूर्ण पृथ्वी कर्म क्षेत्र है, बिना कर्म किये यहाँ कुछ भी हासिल नहीं हो सकता है।
वो सत्य के बारे में कहते है-जिस प्रकार प्रकाश की ज्योति अँधेरे में चमकती है वैसे ही सत्य भी चमकता है। इसलिए हमेशा सत्य की राह पर चलना चाहिए। प्राणी केवल आपकी बुराइयाँ को ही देखते हैं इसलिए लोग क्या कहते हैं इस पर ध्यान मत दो, तुम अपना कर्म करते रहो।
गीता के प्रथम अध्याय का नाम अर्जुनविषादयोग है। प्रथम अध्याय में दोनों सेनाओं का वर्णन किया जाता है।दूसरे अध्याय का नाम सांख्ययोग है जिसमें जीवन की दो प्राचीन संमानित परंपराओं के तर्कों द्वारा वर्णन किया गया है।इसमें श्रीकृष्ण अर्जुन की कायरता के विषय में संवाद किया है और सांख्य योग,स्थिर बुद्धि, व्यक्ति के गुण इत्यादि के बारे में चर्चा की है। तीसरे अध्याय में कर्मयोग के बारे में अपने विचार अर्जुन से सांझा किये है। नित्य कर्म करने वाले की श्रेष्ठता, यज्ञादि कर्म, अज्ञानी और ज्ञानी के लक्षण, काम, विषय के बारे में बताया है। चौथे अध्याय जिसका नाम ज्ञान-कर्म-संन्यास-योग है जिसमें कर्म, अकर्म और विकर्म का वर्णन किया गया है,यज्ञोके स्वरूप,ज्ञानयज्ञ का वर्णन के बारे में अर्जुन को उपदेश दिये हैं।
श्रीकृष्ण ने गीता में बताया हैं कि सबसे पहले मैंने यह ज्ञान भगवान सूर्य को दिया था। सूर्य देव बाद ये गुरु परंपरा द्वारा आगे बढ़ा।अब वही ज्ञान मैं तुम्हे बताने जा रहा हूँ। अर्जुन कहते हैं कि आपका तो जन्म कुछ सालों पूर्व ही हुआ था तो आपने यह ज्ञान सूर्य देव को कैसे कहा।तब श्रीकृष्ण ने कहा है की तेरे और मेरे अनेक जन्म हुए लेकिन तुम्हे याद नहीं पर मुझे याद है।
पाँचवे अध्याय कर्मसंन्यास योग के बारे में विवरण दिया गया है। श्रीकृष्ण इस अध्याय में कर्मयोग और साधु पुरुष का वर्णन करते हैं।वो बताते हैं कि मैं सृष्टि के हर जीव में समान रूप से निवास करता हूँ। छठा अध्याय आत्मसंयम योग है।कृष्ण बोलते हैं कि सुख में और दुख में मन की समान स्थिति, इसे ही योग कहते हैं।सातवें अध्याय ज्ञानविज्ञान योग है।आठवें अध्याय अक्षर ब्रह्मयोग से सम्बंधित है। उपनिषदों में अक्षर विद्या का विस्तार हुआ। गीता में उस अक्षरविद्या का सार कह दिया गया है। गीता के शब्दों में ॐ एकाक्षर ब्रह्म है। नवें अध्याय को राजगुह्ययोग कहा गया है। दसवें अध्याय का नाम विभूतियोग है। इसका सार यह है कि जितने देवता हैं, सब एक ही भगवान की विभूतियाँ हैं। ग्यारहवें अध्याय का नाम विश्वरूपदर्शन योग है। इसमें अर्जुन ने भगवान का विश्वरूप देखा। उनका विराट रूप देखा था। बारहवें अध्याय का नाम भक्ति योग है। जिसका ज्ञान पाकर मनुष्य परमानन्द को प्राप्त हो जाता है। तैरहवें अध्याय में यह बताया गया है कि यह शरीर क्षेत्र है और इसको जाननेवाला जीवात्मा क्षेत्रज्ञ है। चौदहवें अध्याय का नाम गुणत्रय विभाग योग है। यह विषय समस्त वैदिक, दार्शनिक और पौराणिक तत्वचिंतन के बारे में है।सत्व, रज, तम नामक तीन गुण-त्रिको की अनेक व्याख्याएँ इस अध्याय में स्पष्ट की गयी है।15 अध्याय का नाम पुरुषोत्तमयोग है। यह अश्वत्थ रूपी संसार महान विस्तारवाला है। देश और काल में इसका कोई अंत नहीं है इसके बारे में वर्णन किया गया है।सोलहवें अध्याय में देवासुर संपत्ति के बारे में बताया गया है। सतरहवें अध्याय में श्रद्धात्रय विभाग योग है का वर्णन किया गया है। इसका संबंध सत, रज और तम, इन तीन गुणों से है।
अठहारवें अध्याय में मोक्षसंन्यास योग है। इसमें गीता के समस्त उपदेशों का सार एवं उपसंहार है।
अर्जुन गीता के दूसरे अध्याय के सातवें श्लोक में ही श्रीकृष्ण की शरणागति प्राप्त कर लेता है।
गीता के नवें अध्याय के तैतीसवें श्लोक में यह उपदेश दिया गया है अर्जुन तू सुखरहित और क्षणभंगुर इस मनुष्य शरीर को प्राप्त होकर निरन्तर मेरा ही भजन कर।
यह परमात्मा की कृपा है की हमें मनुष्य रूप इस संसार में मिला है। मैंने गीता का अध्ययन व विश्लेषण करके अपने जीवन में बहुत कुछ सिखा है। लोग जो की झूठे आडम्बरों में अपने जीवन का कर्तव्य भूल जाते हैं उनके लिए गीता एक मार्ग दर्शन का कार्य करती है। आज के युग में मनुष्य शायद अपने जीवन से उतना आनंदित नहीं ह जितना होना चाहिए। जीवन से जुड़े बहुत विषय है लेकिन सिर्फ़ हम उसका एक पहलू ही देख पाते है जिस कारण हमारे जीवन में निराशा रहती है। कहीं न कहीं हम ज़िंदगी को बोझ के रूप में जी रहे है और वास्तविक ज्ञान से दूर हो रहे है जो हमें गीता का अध्ययन करके अवश्य मिल सकता है। हमें अपनी कुछ धारणाओं को बदलना होगा सिर्फ़ मंदिर जाकर पुष्प अर्पित करना हि मात्र हमारे जीवन का उद्देश्य नहीं है हमें अपने चित्त पर काम करना है आज का मनुष्य अपने चित्त को पवित्र करने को छोड़कर बाकी सारे पाखंड कर रहा है। ईश्वर हमारे खुद के अंदर है। हमें बाहरी आडंबरों को त्यागकर सच्चे ज्ञान को पाना है। गीता को लेकर मेरे खुद के कुछ अनुभव रहे हैं और इसको पढ़ने के बाद मेरे विचारों में परिवर्तन आया है। मेरा खुद का अनुभव ये रहा है की मात्र दूसरों के दिखाये हुए रास्ते पर चलकर सफलता हासिल नहीं होती हमें अपना रास्ता स्वंम खोजना पड़ता है और अनवरत अपना कर्म करते रहना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति में अलग अलग गुण होते हैं, उनकी अपनी एक पहचान होती है और कुछ ऐसे भी होते हैं जो ईश्वर से सिर्फ़ मांगते रहते हैं- श्रीकृष्ण ने स्वंम कहा है कि कर्म करो फल की इच्छा मत करो। कर्म के अनुसार फल अवश्य मिलता है। लेकिन हम कर्म पर ध्यान न केंद्रित करके उसके आने वाले परिणाम के बारे में पहले से है सोचने लगते हैं। अगर हमारे अंदर गीता के ज्ञान का कुछ अंश भी आ जाता है तो वो हमारे जीवन के लिए उच्च कोटि का ज्ञान होगा और इसका अनुसरण हमें ज़रूर करना चाहिए। जब गीता के ज्ञान से व्यक्ति का विवेक जाग्रत हो जाता है तो वो अवश्य ही उच्च शिखर पर पहुँच जाता है। व्यक्ति अपने अनुभवों के आधार पर ही सत्य का ज्ञान प्राप्त करता है। जो हमारे मन में भय उत्पन्न करता है वह ज्ञान नहीं भ्रम होता है। और आज के युग में हम ज्ञान के बजाय अत्यधिक भ्रम को अपने अंदर समाहित कर रहे हैं। भागवत गीता का ज्ञान पूर्ण रूप से अध्यात्म, चेतना, भावों, मन की शुद्धता से जुड़ा हुआ है। आज के युग में लोगों ने सिर्फ़ शब्दों को महत्व दे रखा है और उनके भावों को भूल गए हैं। धर्म को पूर्ण रूप से खोखला बना कर रख दिया है। हमारी आस्था शब्दों में ही समाहित हो चुकी है, भावों में नहीं रही। व्यक्ति आस्तिक होकर भी, मंदिर जाकर भी, ईश्वर का नाम जपने के बावजूद भी उस मनुष्य के अंदर उस परमात्मा का अंश भी नहीं नज़र आता है। जब हम अपने अंदर बसे अंधकार, सभी प्रकार के भ्रम, द्वेष, काम, विषय इत्यादि को हटा देंगे तो हमारे अंदर की रोशनी जाग जायेगी हमें धर्म, सत्य का ज्ञान हो जायेगा। हमने अपने जीवन को स्वंम ही जटिल बना रखा है असल में जीवन इतना जटिल है ही नहीं। हमें अपने अंदर के ज्ञान का दर्शन करना है बाहरी तत्व से प्रभावित नहीं होना है। हमारे अंदर असीम ज्ञान है जो हर कोई नहीं देख सकता। हमें अपने उस सामर्थ्य और ज्ञान की खोज स्वंम करनी है। हमने ऐसी भ्रांतियां अपने अंदर इकट्ठी की हुई है जो की जीवन को जटिल बना देती हैं जैसे लोग बोलते हैं ईश्वर की आराधना न करने से पाप लगता है तो लोग भगवान की आराधना तो कर रहे हैं किन्तु विचारों में पवित्रता का अंश मात्र भी नहीं है।
मात्र ईश्वर की स्तुति करने से हमारे अंदर शांति, प्रेम इत्यादि का संचार नहीं हो सकता जब तक की ह्दय में वो भाव जागृत न हो। आज का व्यक्ति केवल प्रवचन में जाने मात्र को अपना धर्म समझने लगा है। भले ही वो उन बातों को सुने या न सुने, उनको अपने जीवन में गृहण करें या फिर न करें। इसीलिए हमको अपने अंदर की चेतना को जगाना है और सभी को सत्य से अवगत भी कराना है। धर्म का संबंध असल में आंतरिक जगत व विचारों से है। हम धर्म के नाम पर अलगाववाद, संप्रदाय इन क्रियाओं में लगे हुए हैं और परमात्मा को भूल गए हैं क्युंकि जहाँ पर ईश्वर की स्मरण करने की बात आती है वहाँ पर इस तरह के विभाजन, भेद भाव के विचार उत्पन्न ही नहीं होते हैं। आज कल जो बड़े बड़े शास्त्रों के ज्ञाता, विद्वान धर्म के नाम पर ऐसे विचार रखते हैं जो सिर्फ़ लड़ाई का कारण और भ्रम का कारण बनता है इसिलिए मैं स्वंम अपना गुरु गीता को समझती हूँ और उन्हीं विचारों को ग्रहण करती हूँ।संसार में सामूहिक बदलाव एक पल में नहीं आ सकता है इसीलिए प्रत्येक प्राणी को खुद के अंदर स्वंम है बदलाव लाना चाहिए और अपनी चेतना को जागृत करना चाहिए फिर संसार में स्वंम ही सामूहिक बदलाव आ जायेगा। जीवन की हकीकत सिर्फ़ ये ही है जो इंसान को इंसान का दुश्मन बना दे वो हमारा धर्म नहीं है बल्कि जो आपस में प्रेम का भाव मन में रखे वो ही धर्म है और वो ही गीता का ज्ञान।मेरी विचारधारा ये ही है की बाहरी ज्ञान कितना भी अर्जित कर लो लेकिन आत्म शक्ति का ज्ञान परम शांति जीवन में भर देता है। हम अपने इस अनमोल जीवन को अलग अलग तरह की भ्रांतियां पाल कर स्वंम नर्क में धकेल रहे हैं।कभी कभी हम अपने जीवन में धन कमाते रहते हैं लेकिन ये पता ही नहीं होता की हम इतना अधिक धन क्यों कमा रहे हैं।हमें यह भी लगता हैं की हम धन आनंद के लिए कमा रहे हैं लेकिन धन मिल जाता है किन्तु आनंद नहीं मिल पाता इसिलिए हमे जागरण का ज्ञान होना अति आवश्यक है जो की हमें गीता से मिलता है। हमें कभी भी ज्ञान को जागरण नहीं समझना चाहिए क्युंकि ज्ञान सिर्फ़ जानकारियों का संग्रहण है और वो जानकारी उचित भी हो सकती है और अनुचित भी लेकिन जागरण एक ऐसी अवस्था है जो उस ज्ञान को सार्थक सिद्घ करती है।
परमात्मा ने हमें ये अनमोल जीवन दिया है और हम पिछले जन्म और अगले जन्म के बारे में ही विचार करते रह जाते हैं और अपने इस जीवन का बेहतर तरीके से उपयोग नहीं कर पाते। ईश्वर ने न हमें अपने पिछले जन्म की यादें दी हैं और न ही हमें अगले जन्म का कोई मार्ग दिखाया है। जिस चीज़ को जानने का ईश्वर ने हमें कोई मार्ग नहीं दिया है हम फिर क्यों उस को जानने में अपने समय और जीवन को व्यर्थ करते हैं। इसिलिए ईश्वर ने कहा है की सिर्फ़ तुम अपना कर्म करो। ईश्वर की प्राप्ति के लिए लोग मंदिर जाते हैं, प्रवचन में जाते हैं लेकिन मेरा ये मानना है कि हम परमात्मा को नहीं जान सकते इसिलिए हमें परमात्मा को जानने के लिए नहीं बल्कि उनको महसूस करने के लिए पुरुषार्थ करना चाहिए। और अगर हम महसूस करेंगे तो आभास होगा ईश्वर पृथ्वी के कण कण में मोजूद है।गीता के ज्ञान से मनुष्य के रूप में एक अलग ही ज्योति नज़र आती है, उनके चेहरे पर अलग ही आभा रहती है, उनके कर्म भी दिव्य होते हैं, सजगता, सरलता ये सभी भाव उस व्यक्ति में होते हैं जो गीता के ज्ञान को अपने जीवन में ग्रहण करता है। गीता पढ़ने के बाद जो मेरे जीवन का मर्म है वो सिर्फ़ ये है कि जितनी शिकायतें हम ईश्वर का करते हैं और जितना हम ईश्वर से मांगते है और अगर उतना वक़्त हम अपने अंदर के अंधकार को मिटाने में लगाते हैं तो हमें फिर कभी ईश्वर से शिकायत करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। जीवन दर्शन पर जितनी चर्चा की जाए वो ही कम पड़ जाती है लेकिन जब तक मनुष्य अपनी भूमिका को नहीं निभाता तो वह चर्चा मात्र ऊपरी दिखावा है। जीवन जटिल नहीं है हमें बस अपने जीवन से उन जटिलताओं को बाहर करना है और जीवन को आनंदित होकर जीना है जो की गीता के ज्ञान को ग्रहण करने से ही संभव है।।।
-ज्योति खारी