श्रमिक जो हूँ मैं तो…
श्रमिक जो हूँ मैं तो…
~~°~~°~~°
दरकता है मेरा विश्वास भी,आईने की तरह ,
पड़ती है मार जब तन पर, क्षुधा की तो ,
उफनता है तन बदन झुलसती गर्मी में ,
दहकता है फिर तन भी शोलों की तरह ।
बिखरे सपनों का दर्द,आहों में भरकर ,
तोड़ता हूँ मैं पत्थर,जिन ऊँचे महलों के लिए ,
उन्हीं महलों की दीवारें तो ,
होती है अंजान मुझसे ,
श्रमिक जो हूँ मैं तो…
अरमानों की बस्ती में,मेरी पहचान कहाँ होती ,
सुकून से बैठ पाना भी मेरे किस्मत में नहीं,
बस यही लालसा रह गयी जीवन में,
जिन्दगी चार खंभो पर टिके छप्पर की तरह ,
जिसके नीचे, चैन से बस सो तो लूँ ,
बेजान लाशों की तरह ।
#विश्व_श्रमिक_दिवस_विशेष
मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – ०१ /०५ /२०२२
वैशाख ,शुक्ल पक्ष , प्रतिपदा,रविवार ।
विक्रम संवत २०७९
मोबाइल न. – 8757227201