” श्रद्धा “
परमात्मा के प्रति अत्यन्त उदारतापूर्वक आत्मभावना पैदा होती है वही श्रद्धा है। सात्विक श्रद्धा की पूर्णता में अन्तःकरण स्वतः पवित्र हो उठता है। श्रद्धायुक्त जीवन की विशेषता से ही मनुष्य-स्वभाव में ऐसी सुन्दरता बढ़ती जाती है जिसको देखकर श्रद्धावान स्वयं सन्तुष्ट बना रहता है। श्रद्धा सरल हृदय की ऐसी प्रतियुक्त भावना है जो श्रेय पथ की सिद्धि कराती है। इसीलिये शास्त्रकार कहते हैं-
” भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्धा-विश्वास रूपिणौ, याभ्यां बिना न पश्यन्ति सिद्धः स्वान्तस्थमीश्वरम् “