श्यामा चिड़िया
तरुवर पर भोली सी चिड़िया,
उड़-उड़कर कुछ कहती है।
सूने पेड़ों की डाली पर,
सूखे कण्ठ फुदकती है।।
ढूँढा करती है वो छाया,
कांटों के झंखाड़ तले।
शहरों के काले लावा से,
नीरस-निर्जन गाँव भले।।
खेतों से कटता जो दाना,
गिरता नहीं धरातल पर।
भरी दुपहरी भूखी प्यासी,
जिंदा कैसे रहती है?
जल का कोई स्त्रोत नहीं है,
तालाबों में नीर नहीं।
बे-दर्दी मानव के मन में,
होती कोई पीर नहीं ।।
अपना गोरा तन गर्मी में,
काला होने के भय से।
हम तो छत के नीचे बैठे,
वो छत पर ही तपती है।।
सूना-सूना आसमान है,
जाने कहाँ छुपे बादल?
अलसाये हैं पंछी सारे,
जाने कब बरसेगा जल !
बारिश की शीतल बूंदों की,
स्वांस-स्वांस में आस लिए।
सूरज की भीषण गरमी को,
जाने कैसे सहती है।।
तरुवर पर भोली सी चिड़िया,
उड़-उड़कर कुछ कहती है।
सूने पेड़ों की डाली पर,
सूखे कण्ठ फुदकती है।।
जैसा कि अभी अभी एक श्यामा चिडिया को पेड़ पर फुदकते देखकर भाव प्रस्फुटित हुए। ता. 03.06.2024 अपरान्ह 1.30
जगदीश शर्मा सहज