शून्य
शून्य,
एक शून्य,
और कुछ नहीं,
क्यों और कुछ नहीं
दीखता सिवा शून्य के
अब कुछ क्यों नहीं सूझता
और कुछ समझ आता है
क्यों है आखिर ये शून्य
महसूस होता है क्यों
हरपल यही शून्य
नहीं होता है
उपलब्ध-
कुछ भी
सिवाय
इसके,
इस शून्य के।
शून्य
जो उपजा है,
जाने से आपके।
(c)@ दीपक कुमार श्रीवास्तव “नील पदम्”