शून्य बनी इकाई है
आंखो के पलको पर जब राज सपनों का होता था
नींद न आती थी रातों को, हर रात सवेरा होता था
एहसासों को रखकर बक्सों में ताले अपने होते थे
कोई न पढ़ ले आंखो को अपने सर झुकाए होते थे
इस चकाचौंध के लालच ने कई बार हमे हर्षाया है
ऐठन जैसी लगती बातो को हर बार दफनाया है
थके हारे जब हाल हमारे होते थे
तनहाई के चादर को हम बस औढ़ा करते थे
सब हसते थे हम सोते थे, फिर नींद पूरी होती थी
रोज नई सुबह अपनी एक आस लेकर होती थी
हैरान खड़े सब होते है जब नाम हमारा होता है
उदगम सूरज तेज किरण सा सर अब अपना होता है
शून्य बनी इकाई है,आराम आराम नहीं कठिनाई है
कितनी खुशियां पाई हमने और कितनी गवाई है…