शीशा
कविता
शीशा
*अनिल शूर आज़ाद
छनाक!
नीचे/फर्श पर ही नही
मेरे भीतर भी/टूटा था
एक शीशा
नीचे तुमने/तस्वीर नही
स्नेहदीप/ गिराया था
एक प्रेमिल-हृदय को
तिरस्कृत/ किया था
तुम शायद/ नही जानती
फर्श पर/मात्र किरचें नही
अपनत्व भी/ कहीं
चूर-चूर/हो गया था।
(रचनाकाल : वर्ष 1988)