शील भंग की नई ख़बर है / (समसामयिक कविता)
गरम-गरम है , ताज़ी-ताज़ी,
शील भंग की नई ख़बर है ।
सच्चाई है या-कि झूठ है,
कुछ तो है, जो इधर-उधर है ।।
रेप हुआ है , टेप हुआ है,
लेकिन सबकुछ लेप हुआ है ।
शायद ! आगे और कसर है ।।
लाठीं बरसीं , गाडीं आईं ,
रही अनसुनी , पीर पराई ।
चीख निकलती बेसुध घर है ।।
धर्म खड़ा है मूक , देखता ,
कर्म अड़ा है , धूल फेंकता ।
ऊँच-नीच की कोर-कसर है ।।
जीभ कटी है , हड्डी टूटी,
निर्धन घर की किस्मत फूटी ।
ज़िंदा माँ का कटा जिगर है ।।
आज़ादी का सपना क्या है ?
आबादी में अपना क्या है ?
कौन सोचता किसे फ़िकर है ??
लोग काटते , लोग कटे हैं,
लोग मारते , लोग मरे हैं ।
ऐसा ही फिर आगे डर है ।।
नेता बहरे , अफ़सर गूँगे,
पुलिस दिखाती केवल डण्डे ।
और वक़्त की बुरी नज़र है ।।
ख़बरें पहले भी आती थीं,
अब भी हैं , आगे आएँगीं ।
ऐंसी ख़बरें जिनका डर है ।।
भीतर सब कुछ टूटा-टूटा,
अंदर सब कुछ सूना-सूना ।
बाहर लेकिन मची गदर है ।।
जलती बेटी , कटती बेटी,
तिल-तिल देखो , मरती बेटी ।
लज्जा का झूठा उत्तर है ।।
घिसती बेटी , पिसती बेटी,
पल-पल देखो, रिसती बेटी ।
बेटों से फिर भी बेहतर है ।।
बाग कुचलते रखवाले हैं ,
अच्छे दिन आने बाले हैं ।
जड़ें खोखलीं खड़ा शज़र है ।।
आग उगलती भाषाएँ हैं,
नेह कुचलती आशाएँ हैं ।
पक्की चौखट, कच्चा दर है ।।
इन लोगों का, उन लोगों का,
सरकारों के सब लोगों का ।
वोट लक्ष्य है , वोट सफ़र है ।।
शासन की कोशिश तमाम है,
या विपक्ष का ताम-झाम है ।
जो भी है , पर सच्चा डर है ।।
कविताओं में, गीत, नज़्म में,
श्रोताओं से भरी वज़्म में ।
एक चीख है , एक कहर है ।।
जहाँ आज ये काँव-काँव है,
एक शहर का एक गाँव है ।
पीड़ा से जो तर-ब-तर है ।।
ख़बर ये झूठी हो सकती है,
मर्यादा को खो सकती है ।
फिर भी इसका हुआ असर है ।।
आए थे सब टी.व्ही. बाले ,
आए थे सब पेपर बाले ।
थोड़ा साहस इनमें भर है ।।
जो जब होगा, वो तब होगा,
लेकिन निर्णय ये कब होगा ?
भारत भर की टिकी नज़र है ।।
खाल खींच लो गद्दारों की,
जीभ काट लो मक्कारों की ।
मारो, काटो, किसका डर है ??
उठो,उठाओ ! जगो,जगाओ!
स्वाभिमान का शंख बजाओ ।
एकमात्र बस यही डगर है ।।
गरम-गरम है , ताज़ी-ताज़ी,
शील भंग की नई ख़बर है ।।
—- ईश्वर दयाल गोस्वामी ।