शीर्षक:वो प्रतीक्षारत पत्थर
^^^^^वो प्रतीक्षारत पत्थर^^^^^
मैं खड़ी आज पत्थर पर
तलाशती रही उसके अहसास
क्यों हैं वह इतना कठोर
आखिर क्यों पड़ा हैं एक किनारे
प्रतीक्षा में मानो आये कभी उसकी याद
मैं आज भी वहीँ पर खड़ी देखती रही
ढूँढ़ती रही उसके मनोभाव स्वयं में ही
दूर तक बस वही उस किनारे से इस किनारे तक
गूंजती हैं अपनी ही प्रतिध्वनि मानो पत्थर से
संगीत स्फुरित होकर आ रहा हो
प्रतिध्वनि मेरी मानो पत्थरो से उनकी ही ध्वनि ह
लौट कर आती हैं हमारे कानो तक
अगर पड़ गई परखी निगाहें तो उद्धार अवश्य है
आशा की किरणें लिए पत्थर पड़े हैं मानो प्रतीक्षारत
ऐसी ही एक आस मैने भी पाली हैं मन में कि शायद
आएगा एक दिन एक भी अभी तो मानो
राहगीरो की निगाहों में ही रहे अब परखी नजरें पड़े
पर फिर वही एक लंबी सी उदासी
फिर से सोचने को करती हैं मजबूर आखिर
क्या है इस पत्थर की किस्मत
बस किसी की निगाह मात्र
डॉ मंजु सैनी
गाज़ियाबाद