शीर्षक:मुखरित होते शब्द
::::: मुखरित होते शब्द :::::
शब्दगीत में निर्झर बहते शब्द मेरे
करते रहते हैं मंद मंद सी सुमधुर ध्वनि
उन क्षीण होती अनुभूतियों की
जिनमें लिप्त रहती थी मैं
वही सहज अनुराग न जाने क्यों
अवचेतन के अतल तक चला जाता हैं
मेरी चेतना जागृत होते हुए भी
मूक बैठ जाता हैं कहीं गहनता देखकर
स्मृतियाँ हिलौरे लेती हैं तो लेखनी से
उभर आते शब्दों में झलकते हैं तमाम दर्द
बहती हैं दर्द की असहनीय अनुभूतियां
शब्द टटोल ही लेते हैं स्वयं
और रच डालते हैं एक और नई रचना
मेरे सानिध्य में शायद मुझको ही
बुलबुले यादों के बन जाते हैं और भर
जाते है मानों शब्द रूपी हवा से
लेखनी देती हैं पुनः एक यथार्थ को पुनर्जन्म
और फिर से एक शब्द रचना होती हैं मुखरित
भावनात्मकता से परिपूर्ण..!!