शीर्षक:पापा मैं समेटना चाहती हूँ खुद को
शीर्षक:पापा मैं समेटना चाहती हूँ खुद को
मैं समेटना चाहती हूँ खुद को
फिर भी न जाने क्यो सिमट नही पा रही हूँ मैं
देखती हूँ स्वयं को बिखरते हुए
आपके सम्बल के बिना शायद
नही है सिमट पाना मुमकिन
मैं समेटना चाहती हूँ खुद को
क्या सही हैं यह सोचने में असमर्थ
पाती हूं मैं स्वयं में,स्वयं को समझाने में
आप बिन असफलता ही मिलती हैं
नही हो पा रही हूँ व्यवस्थित मैं
मैं समेटना चाहती हूँ खुद को
कुछ लम्हें रोशन से नजर तो आते हैं
आपकी यादो के गम के अँधेरे में खो जाते हैं
खुश होना तो चाहती हूँ मैं
पर आपकी यादो में उलझ रह जाती हूं
मैं समेटना चाहती हूँ खुद को
दिल के कोने से एक सिसकी झाँक रही
आपकी यादो की तडफ़ तड़फता रही हैं
चुप कराना चाहती हैं यादे आपकी मुझे
पर यादो के दर्द की पीड़ा टीस देती हैं
मैं समेटना चाहती हूँ खुद को
हँसी भी नही आती अब तो किसी वात पर
हर दम यादो का गम समेटे चल रही हूँ मैं
खुला पड़ा हैं बेतरतीब से यादो का पिटारा मेरा
यादे जिंदगी की तरह खत्म होने को ही नही
मैं समेटना चाहती हूँ खुद को
डॉ मंजु सैनी
गाज़ियाबाद