शीर्षक:पापा का घर
शीर्षक:पापा का घर
जब तक पापा जिंदा रहते
बेटी मायके में हक़ से आती जाती रहती
और घर में भी ज़िद कर लेती है और मनवा भी लेती
कोई कुछ कहे तो डट के बोल देती है कि
मेरे पापा का घर है मेरा भी पूरा सा हक हैं
पर जैसे ही पापा चले गए ना तो बस
समझो कि बेटी तो अनाथ सी ही हो जाती
घर आती पापा के बाद तो वो इतनी चीत्कार
करके रोती पता चल जाता सभी को कि बेटी आई
जब तक पापा जिंदा रहते
बेटी मायके में हक़ से आती जाती रहती
बेटी उस दिन अपनी हिम्मत हार जाती है,
क्योंकि उस दिन उसके पापा ही नहीं उसकी वो हिम्मत मर जाती हैं वह रह जाती हैं नितांत अकेली
पापा की मौत के बाद बेटी कभी अपने
भाई- भाभी के घर वो जिद नहीं करती
जो अपने पापा के वक्त करती थी,
जो मिला खा लिया, क्योंकि अब पापा नही हैं
जब तक पापा जिंदा रहते
बेटी मायके में हक़ से आती जाती रहती
इसके आगे लिखने की हिम्मत नहीं है,
क्योकि मैं भी बिन पापा की बेटी हूँ
सब मेरे साथ भी हुआ हैं,यही हित भी हैं
इतना ही पापा के लिए बेटी उसकी जिंदगी होती है, पर वो कभी बोलता नहीं, और बेटी के लिए पापा
दुनिया की सबसे बड़ी हिम्मत और घमंड होता है, पर बेटी भी यह बात कभी किसी को बोलती नहीं है।
जब तक पापा जिंदा रहते
बेटी मायके में हक़ से आती जाती रहती
पापा बेटी का प्रेम समुद्र से भी गहरा होता हैं
मुझ से ज्यादा शायद ही कोई जाने पापा
समुद्र की लहरों सी आपकी बिटिया मानो
किनारे से मिल तो लेती हैं पर टिक नही सकती
कुछ क्षण अपने किनारे संग मुझ सी बेटियाँ भी
ढूंढती हैं आंखे अपने बीते हुए सुखद पलो को
डॉ मंजु सैनी
गाजियाबाद