शीर्षक:जीवन की सच्चाई
१४-
जीवन चलता है निर्बाध
अविरल गति से अपनी लय को लिए
उम्र के एक पड़ाव पर आकर लगता हैं
क्या किया हमने और आये क्या करने थे जीवन मे
जिंदगी तो चलती रही अपनी गति
शायद मेरी समझ देर से चली
क्यो मैं अबोध सी नासमझ सी रही
कभी लगता था मेरा तो संसार माँ पापा हैं
कैसे रह सकती हूँ संसार मे उनके बिना
पर ये भरम भी टूट गया जब मेरे साथ ये सब हुआ
जी रही हूँ उनके बिना ही शायद यही जीवन गति हैं
मुझ बिन भी रहेंगे मेरे अपने ये अब समझ आया
कहां रुकता हैं अविरल जीवन मे कुछ भी
सब अपनी गति से भाग ही तो रहा हैं
किसी के हाथ कुछ नही फिर भी न जाने क्यों
अहंकार हावी है मनुष्य के ऊपर
सोच कर चलता है मैं ही सब कुछ कर रही हूं
मेरे बिना कुछ भी जैसे सम्भव ही नही
आखिर क्यों समझ नही आता..?
जब तक समझ आया जिंदगी ढलान पर खड़ी पाई
जीवन सतत हैं सदैव है बस” मैं”जाता हैं
ओर फिर से हम आते हैं एक लंबी यात्रा पर
एक बार फिर से जीवन मे
स्वयं को “मैं” में देखने को