शीर्षक:खंड खंड अखंड
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पत्थरों के गलियारे से निकलते हुए
न जाने क्यों ध्यान आकर्षित हुआ
पत्थरों को तराशकर कितना खूबसूरत
आकार दे दिया गया मजदूर के हाथों ने
उस ऊँची इमारतों से गुजरते हुए
दिनभर की तलाश अब पूर्ण हुई
मानों पत्थरो से ही प्रश्नों के उत्तर मिल गए
कि हम बाहर से कठोर होते हुए भी
इस पत्थर की तरह ही स्वयं को भी
समयानुसार आकृतियों में ढल सकते हैं
शारीरिक आकृति रूप परिवर्तित नहीं करती
पर मन को हम तराश सकते है पत्थर के मानिंद
कलम उठाकर यहीं धार दे दी मैंने उसको
खंगालती रही पत्थरों से ही उनकी जुबान
शायद दे पाऊँ पत्थर की आवाज को शब्द रूप
लम्हा लम्हा डुबोती रही उनके अतीत को
मानों चीख कर कुछ कहना चाह रहे हो ये पत्थर
इनके अहसास को मैं आज तराश देना चाहती हूँ
दीवारों की भित्तियों में झांक कर
जो छिपी हैं कहीं उन्ही के भीतरी कोने में कहीं
लगता हैं अभी तक शायद कोई पहुंच ही नही पाया
इन भित्तियों के भीतर तक
जो लिख सके इनके दबे से दर्द को
इन पत्थरो को भी अहसास होता हैं
कि मेरी भी दयनीयता उकेर दी जाए शब्दों में
किसी के दिल को छू जाए शायद मेरे अतीत के दर्द
हम खड़े हैं वर्षो से यूं ही अखंड
खुद को खंड- खंड बंटा सा महसूस करते हुए
आज भी आपके दर्शनार्थ यूं ही
डॉ मंजु सैनी