शीर्षक:एकाकार
एकाकार…
मन शांत लिए ही स्थिर सी
आज बैठ गई थी मानों एकाग्रता में
सोच पाऊँगी अपने को व अपने भविष्य को
झांक पाऊँगी स्वयं में, अपने ठहराव को
ठहराव में ही गूंज उठा मन में प्रश्न
एक हकीकत से सामना कराते हुए
सामने इस घर का मंजर देखकर
मानों साँसे तेज होकर चल पड़ी हों
ये मकान आज खंडहर सा अकेला खड़ा
देख रहा हैं अपने ढह जाने के स्वरूप को
न जाने कब अंतिम सांस ले और ढह जाएगा
कभी कहकहों से महकता होगा
परिवार संग चहकता होगा
पर आज जर्जर हालत में अकेला ही
अंतिम सफर की प्रतीक्षा में
कितनी आशाओं से कभी रखी गई होगी
इसकी भी नींव बिल्कुल मेरी तरह ही
पर आज मैं देख रही हूँ इसमें स्वयं को
मानों आज अकेली ही खड़ी कर रही हूँ
अंतिम यात्रा से पहले अपने चलने की प्रतीक्षा
आश्चर्य होता उन सभी रिश्तों पर जो साथ होते हैं
इस खंडहर की तरह ही छोड़ जाते हैं ऐसे ही
समान स्थिति नज़र आती हैं मुझे
आखिर क्या..? ठहर जाना हैं ऐसे ही,ढह जाने को
मन में अनेको प्रश्न लिए,सम्पूर्ण जीवन यात्रा के
मानों मेरा एकाकार हो रहा हो आज अंतिम यात्रा से
रूबरू हो रही थी हकीकत से आज मैं
वही जो देख रही हूँ इस खंडहर मकान को
मैं भी क्षण क्षण बढ़ रही हूँ ऐसी अवस्था में
एकाकार होने की और अग्रसर
अकेली ही ढह जाने को जीवन लीला से
डॉ मंजु सैनी
गाज़ियाबाद