शिशिर का स्पर्श / (ठंड का नवगीत)
आग जूड़ी
लग रही है
हो रहा
पारा हताहत ।
हाथ सेंको,
पाँव जूड़े,
पाँव सेंको
कमर जूड़ी ।
और जो
बाकी बची
वो कोर जूड़ी,
कसर जूड़ी ।
धुंध है
पाखंड की
विश्वास का
तारा हताहत ।
शिशिर का
आतंक गहरा,
सूर्य को ढक
रहा कुहरा ।
कपकपी ऐसी
कि जिससे
सिकुड़ हर तन
हुआ दुहरा ।
प्रकृति का
बाह्य,अंतर
आवरण
सारा हताहत ।
शीत लहरों
ने बिगाड़ा
आदमी का
खेल सारा ।
पनपने के
पूर्व फसलें
लीलता है
घटा-पारा ।
ठिठुरती
जीवन-नदी
की हो रही
धारा हताहत ।
आग जूड़ी
लग रही है
हो रहा
पारा हताहत ।
०००
—- ईश्वर दयाल गोस्वामी
छिरारी (रहली),सागर
मध्यप्रदेश ।
मो.- 8463884927