शिव कुमारी भाग ९
दादी जब थोड़ी थोड़ी समझ मे आने लगी थी तो वो लगभग ८७-८८ वर्ष की हो चुकी थी, पूरा तो उनको दादाजी भी नहीं समझ पाए होंगे, वे भी आश्चर्यचकित रहते, कि कब क्या बोल उठे?
बस इतना वो और सारे घरवाले जानते थे कि दादी कुछ भी कह सकती है।
कोई कितना भी करीब क्यूँ न हो दूसरे को पूरी तरह कहाँ जान पाता है और इंसान खुद को भी कितना समझ पाता है, अवकाश ही नही होता खुद को उघाड़ कर देखने का। दूसरे की तो बात ही अलग है।
उस उम्र मे थोड़ा झुक कर चलने लगी थी पर उनकी छड़ी हवा मे उठ कर उनका कद बता देती थी और जुबान तो छड़ी से भी काफी ऊंची थी।
उनको मैंने कभी बीमार पड़ते नही देखा, खांसी ,बुखार तो उनकी बातें सुनकर ही पास नही फटकते, कौन उनके कोसने सुनता,और वो ये भी जानते थे कि बुढ़िया के पास उनके सारे इलाज भी हैं।
एक बार पीठ मे एक फोड़ा निकल आया था, माँ ने उनकी पीठ पर एन्टी बैक्टरिन ऑयल लगा के, रुई को टेप से चिपका दिया था,
किसी ने पूछा कि क्या दवा लगाई है, पहले तो उनको थोड़ा गुस्सा आ गया कि दवा का नाम उनको बोलना नही आता,
बोल पड़ी,
कोई हरी हरी सी दवा हैं
दो चार दिन तक घाव की सफाई के समय दर्द से थोड़ा हिलती पर मजाल है कोई दर्द की आवाज़ या चींख निकले। फोड़ा भी उनकी दिन रात गालियां सुनकर डर के मारे भाग ही पड़ा।
कभी कभी गैस की शिकायत हुई, तो इतनी तेज डकारें लेती कि गैस के कान फटने लगते, वो भी सोचती, राम, मैं किसके पास आ गई आज?
एक बार पड़ोस मे गई, हालचाल पूछने पर पता चला, वहां उनके पोते को बुखार है, तभी एक और महिला बोल पड़ी कि पास वाले घर मे भी एक बच्चे की ताबियत ठीक नही है।
दादी फिर विशेषज्ञ की तरह बोलीं,
“च्यारांकानी कोई हवा ही इसी चाल राखी ह”
(चारों तरफ कोई ऐसी हवा चल रही है, जो शरीर मे जाते ही बीमार कर देती है)
सभी ने दादी की बात सुनकर, एक स्वर मे हाँ कहा।
दादी को बस जाड़े से थोड़ी परेशानी जरूर होती, वो ठंड के मौसम मे दो रजाइयां ओढ़ती ,एक शाल और स्वेटर सिराहने रखती,
बकौल दादी, स्वेटर रात मे पहन के नही सोना चाहिए, क्योंकि रात मे वो शरीर का खून चूस लेती है। दिन मे कुछ नही कहती।
हो सकता है, मच्छरों के खानदान की हो?
मैं उनके रजाई ओढ़ने के बाद, थोड़ी देर उसके गर्म होने का इंतजार करता फिर दादी की रजाई मे घुसकर उनसे लिपट जाता।
मेरे आते ही , दादी इस तरह स्वागत करती,
“बालनजोगो छाती छोलन आग्यो”
(कमबख्त, परेशान करने आ गया)
कभी मिजाज अच्छा होता तो बताती कि ये जाड़े का मौसम क्या कहता है
“टाबर न म बोलूं कोनी,
जवान म्हारा भाई
बुड्ढा न म छोडडु कोनी
चाहे किती ओढो रजाई”
(बच्चों को मैं कुछ नही कहता,
जवान मेरे भाई हैं
बूढों को मैं छोड़ता नही हूँ
चाहे वे कितनी रजाइयां ओढ़ले)
हल्की फुल्की बातों मे , एक छोटी सी सीख बता जाती थी,
उनको ये अहसास भी होता होगा कि वो बूढ़ी चुकीं हैं अब!!
तभी कोई घर की बहू उनके पांव दबाने आ जाती। पांव दबाना तो एक बहाना था, उनसे जो आशीर्वाद मिलता, उसकी कहीं न कहीं सबको जरूरत थी।
मैं शरारत मे, कभी अपने पाँव भी सरका देता, मेरा पांव हाथ लगते ही, भाभियाँ हंसी वाला गुस्सा भी दिखाती। दादी को ये पता लगते ही,
“मरज्याणो बिगड़ क बारा बाट होग्यो, माँ बाप तो जाम जाम क गेर दिया, अब दादी संभालो”
(ये दुष्ट,पूरी तरह बिगड़ चुका चुका है, इनके माँ बाप ने तो बस पैदा कर कर के डाल दिया, दादी के भरोसे कि वो उन्हें संभाले अब)
मेरे लिए उनकी ये बातें बेअसर साबित होती थी, क्योंकि भाभी के जाते उन्हें कहानी सुनाने को भी तो राजी करना था!!!