शिमला की शाम
अनकही बातों को बयां करते करते
कभी ऊंचे पहाड़ की वादियों को
तो कभी एक दूसरे को देखते देखते
कुल्हड़ वाली चाय पी रहें थे
बयां कर रहे थे मौसम रूमानी पयाम
क्या तुम्हें याद है वो शिमला की शाम
गोरी तुम्हारे पैरों की पाज़ेब से
भीनी हवाऐं मधुर धुन चुरा रही थी
चीड़ और देवदार के दरख्तों के जैसे
तुम्हारी कानों की बाली झूम रही थी
लबों से छलक रहे थे इश्क के जाम
क्या तुम्हें याद है वो शिमला की शाम
समर हिल के बादलों पर बैठे हुए थे
सुरमयी शाम रफ्ता रफ्ता ढल रही थी
पुरवाइयां हौले हौले चल रही थी
बिखरी हुई थी जुल्फों की घटाए
हम खेल रहें थे जुल्फों से सरेआम
क्या तुम्हें याद है वो शिमला की शाम
✍️ दुष्यंत कुमार पटेल