*शिखर का सफर*
मैं एक पहिया हूँ
पथरीले सड़क को रौंदता हुआ –
चला जा रहा हूँ
उछलता हुआ, कूदता हुआ –
रास्ते में हैं अवरोध भी –
आसपास के लोगों का
सह रहा हूँ विरोध भी –
फिर भी रुकना मैंने जाना नहीं है –
मंज़िल से इतर भी कोई राह होगी
ऐसा मैंने माना नहीं है
जब भी मिलती है
साफ-सुथरी चिकनी सड़क
चैन की साँस लेता हूँ –
प्राण वायु का जाता हूँ –
और कभी कंकड़ पत्थर भरे
उबड़-खाबड़ पगडंडियों पर भी
चलना पड़ता है
फिर भी तनिक न घबराता हूँ
न तो अपनी दिशा बदलता हूँ
बल्कि हर मुश्किल में
एक नए संकल्प के साथ चलता हूँ
जब गति धीमी थी
साथ थे कई हमसफ़र –
पर रफ़्तार ज्यों ही तेज़ हुई है
दूर-दूर तक
कोई नहीं आता नज़र –
यानि
शिखर की ओर
पहुँचने का रास्ता
एकाकी ही तय करना है –
न तो सूनेपन से घबराना है
न तन्हाई से डरना है –
अब तक साथ था जो क़ाफ़िला
पीछे छूटता जा रहा है
मेरी द्रुतगति में कदम मिला सके
ऐसा कोई साथ नहीं –
लड़खड़ायें जब कदम मेरे
थाम सकूं मैं
ऐसा कोई हाथ नहीं –
फिर भी
हर ठोकर से मुझे सँभालना है –
मंज़िल जब तक न पा जाऊँ
बिना रुके मुझे चलना है –
बिना रुके मुझे चलना है !!